Menu
blogid : 5736 postid : 6372

राजनीति और बिजनेस का रिश्ता

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

शरद पवार व्यावहारिक राजनीतिज्ञ हैं। सिद्धांत या विचारधारा से उन्हें कभी कोई मतलब नहीं रहा। व्यावहारिक होने के कारण ही वह बिजनेस में भी रुचि रखते हैं। कहते हैं कि वे महाराष्ट्र की शक्कर लॉबी के सबसे बड़े नेता हैं। इस मामले में शरद पवार कोई अपवाद नहीं हैं। यह प्रवृत्ति महाराष्ट्र की राजनीति में बहुत व्यापक है। जितने भी नेता हैं, फिर भले ही वे विधायक हों या सांसद, उनमें से ज्यादातर का कोई न कोई बिजनेस चल रहा है। कोई कॉलेजों की चेन चला रहा है तो किसी ने अस्पताल उद्योग खोल रखा है। राजनीति और बिजनेस का यह रिश्ता दोनों के ही लिए फायदेमंद है। दोनों के मिलकर काम करने की अपार संभावनाएं जो हैं। आप राजनीति में हैं, तो बहुत-सी चीजों को प्रभावित करने की कूवत रख सकते हैं। इससे आपका बिजनेस फले-फूलेगा और यदि बिजनेस में हैं तो आप राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं। आज पैसा ही सबसे बड़ा देवता है, सब इसी की महिमा है। राजनीति में भी ज्यादातर लोग इसीलिए आते हैं, क्योंकि यहां ऐश्वर्य हासिल करने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती  हैं ।


इसलिए जब इंडिया अगेंस्ट करप्शन के अरविंद केजरीवाल ने भाजपा के खुशमिजाज अध्यक्ष नितिन गडकरी पर भ्रष्ट होने का आरोप लगाया, तो शरद पवार चिंता में पड़ गए। पुणे की एक सभा में पवार ने कहा कि महाराष्ट्र के निर्माण में व्यवसायियों की उल्लेखनीय भूमिका रही है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसलिए उनकी आलोचना करना ठीक नहीं है। कोई राजनेता अगर बिजनेस में है, तो वह कोई पाप नहीं कर रहा है। इसी तरह, कोई उद्योगपति राजनीति में आना चाहे, तो उसे किस आधार पर रोका जा सकता है? पवार की यह राय दिलचस्प है। गडकरी और पवार, दो अलग-अलग पार्टियों में हैं। उनकी विचारधारा परस्पर विरोधी है। फिर शरद पवार ने गडकरी का पक्ष क्यों लिया? क्या सिर्फ इसलिए कि गडकरी का बचाव करने से रॉबर्ट वाड्रा का बचाव अपने आप हो जाता है? या इसके कोई दूसरे निहितार्थ भी हैं? बेशक वाड्रा बिजनेस में हैं राजनीति में नहीं, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि उनका संबंध देश के सबसे शक्तिशाली राजनीतिक परिवार से है और ऐसे परिवार के साथ संबंध हो तो कौन-सा ऐसा गुल है, जिसे नहीं खिलाया जा सकता? स्वार्र्थो पर एकता विरुद्धों के इस सामंजस्य का एक साफ मतलब तो यह है कि जहां तक बुनियादी स्वार्र्थो की बात है, सभी दलों के नेताओं के बीच संपूर्ण एकता है।


उनकी नीतियां अलग-अलग हो सकती हैं, उनका जातीय आधार भी अलग-अलग हो सकता है, विचारधारा यदि है तो वह भी अलग हो सकती है, लेकिन जब निजी स्वार्थ की बात आती है, तो वे एक-दूसरे का साथ देते ही हैं। यह संसद में जब-तब दिखाई भी देता है। जैसे, सांसद जब खुद अपना वेतन तथा अन्य सुविधाएं बढ़ा लेते हैं, तब संसद का बहुमत हमेशा इसके साथ होता है। किसी भी कोने से विरोध का स्वर सुनाई नहींदेता। इसी एकता की वजह से महिला आरक्षण विधेयक भी ठिठका हुआ है। कोई भी दल हृदय से इस विधेयक के साथ नहीं है। यही स्थिति लोकपाल विधेयक की है। इस स्वार्थवादिता से सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि चुनाव व्यवस्था की विकृतियों को दूर करने के लिए आवश्यक चुनाव सुधार नहीं हो पाए हैं। निर्वाचन आयोग प्रस्ताव भेजता रहता है और सरकार उसे फाइल में डाल कर अपने काम में मशगूल हो जाती है। ऐसा नहीं है कि किसी खास दल या गठबंधन की सरकार ही ऐसा करती है। इस मामले में हर दल और हर गठबंधन का रुख एक जैसा ही होता है। इसके मूल में भी वही एकता काम करती है, क्योंकि सभी के स्वार्थ एक जैसे होते हैं। लेकिन बिजनेस और राजनीति का रिश्ता थोड़ा पेचीदा है।


संयुक्त राज्य अमेरिका के अधिकांश राजनेता किसी न किसी बिजनेस से जुड़े होते हैं। हमारे पड़ोसी पाकिस्तान की भी यही स्थिति है। भारत में यह बात हाल में सामने आई है। हमारे यहां पूंजी और पूंजीपति को लगभग घृणा की नजरों से देखा जाता रहा है। बचपन में मैं यह नारा बहुत सुन चुका हूं, टाटा-बिड़ला की यह सरकार, नहीं चलेगी-नहीं चलेगी। जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की तथाकथित समाजवादी व्यवस्था में बड़े-बड़े पूंजीपतियों को सहा भर जाता था। समाज में यह मान्यता थी कि बिजनेसमैन है तो जरूर चोर होगा। इसलिए राजनीति में, जो जनमानस की सेवा करने का एक पवित्र काम है, बिजनेस करने वालों के दाखिले को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। राजनीति में बिजनेसमैन पर सवाल इस प्रश्न का एक दूसरा पहलू भी है। सबूत हों या न हों, राजनेताओं को अक्सर भ्रष्ट मान लिया जाता है, लेकिन यह भी स्वीकार किया जाता है कि एक सांसद को पर्याप्त वेतन-भत्ता नहीं मिलता, इसलिए वह भ्रष्ट हो जाता है। फिर, वह चुनाव जीत जाए, तब तो ठीक है, लेकिन हार जाए, तो उसका घर कैसे चलेगा? हारे हुए उम्मीदवार को तो कोई भत्ता मिलता नहीं है। इसलिए राजनीति में ऐसे लोग ज्यादा से ज्यादा आएं जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हों, किसी स्थायी नौकरी में हों या उनका अपना कोई बिजनेस हो, तो वे कम से कम अपने वेतन-भत्तों के लिए तो भ्रष्ट होने से बचे रहेंगे।


आखिर अभाव ही तो आदमी की नीयत खराब करता है। जिसका पेट पहले से ही भरा हुआ है, वह संसद या विधानसभा में आता है, तो किसी की अर्थ शक्ति उसे प्रभावित नहीं कर सकती है। यह तर्क अच्छा है, क्योंकि लोकतंत्र को कारगर बनाने का एक तत्व इसमें निहित है। यह तत्व राजनेता की आर्थिक आत्मनिर्भरता का है। जब वह आत्मनिर्भर नहीं होगा, तो पर-निर्भर हो जाएगा। लेकिन यह तो पूछा ही जा सकता है कि क्या सामान्य उद्योगपति और राजनीति करनेवाले उद्योगपति में कुछ फर्क नहीं होना चाहिए? बिजनेस क्लास के बारे में माना जाता है कि वह व्यक्तिगत हित को सामाजिक हित से ऊपर समझता है। वह मुनाफाखोर होता है। वह यह नहीं सोचता कि समाज की आवश्यकताओं को कम से कम लागत से पूरा किया जा सकता है। उसकी नजर इस पर रहती है कि किस बिजनेस में मुनाफा ज्यादा है। मुनाफे को अधिकतम बनाने के लिए वह सरकारी नियमों को तोड़ता है और मजदूर वर्ग का शोषण करता है। ये सारे आरोप आधारहीन भी नहीं हैं। इसलिए सवाल यह उठता है कि राजनेता के बिजनेस और सामान्य आदमी के बिजनेस में कुछ मूलभूत अंतर होना चाहिए या नहीं? क्या राजनेता को बिजनेस के क्षेत्र में कुछ आदर्श कायम नहीं करने चाहिए। अगर नहीं तो कोई भ्रष्ट व्यवसायी संसद की शोभा बढ़ाएगा या उसे कलंकित करेगा?



लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं



शरद पवार , व्यावहारिक राजनीतिज्ञ , सिद्धांत , विचारधारा, महाराष्ट्र , राजनीतिज्ञ , इंडिया अगेंस्ट करप्शन, अरविंद केजरीवाल , शरद पवार , नितिन गडकरी , राजनीति,  बिजनेस का रिश्ता , सामान्य आदमी , संयुक्त राज्य अमेरिका ,Statesman, Political


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh