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यह अंतर है समिति और समिति में! एक समिति की रिपोर्ट में ऊटपटांग बातें भरी हों, तो भी उसे सिर नवा कर स्वीकार किया जाता है। जबकि दूसरी समिति की रिपोर्ट में नितांत वैज्ञानिक, गणितीय और प्रमाणिक आकलन होने पर भी हमारे कर्णधार उसे कूड़े में फेंकने में एक क्षण की देर नहीं लगाते। जी हां, राम-सेतु को तोड़कर व्यापारिक समुद्र-मार्ग बनाने पर विख्यात वैज्ञानिक आर.के. पचौरी समिति की रिपोर्ट के साथ यही किया गया है क्योंकि समिति ने उस परियोजना को पूरी तरह अनुपयुक्त बताया है। किसी धार्मिक भावना के नाम पर नहीं, बल्कि केवल वैज्ञानिक, पर्यावरणीय और आर्थिक आधारों पर। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यह परियोजना आस-पास के इलाके के पर्यावरण संतुलन और जैव-संतुलन के लिए खतरा पैदा कर सकती है। अब स्वयं सरकार द्वारा नियुक्त आठ वैज्ञानिकों-विशेषज्ञों की समिति ने ही पाया कि यह योजना न केवल पर्यावरण, विशेषकर पूरे क्षेत्र के जीव-जंतुओं के लिए खतरनाक है; बल्कि आर्थिक रूप से भी लाभदायक नहीं है।
यह सब तब, जबकि पर्यावरणीय हानि, प्रदूषण और प्रतिकूल प्रभावों को हिसाब में नहीं लिया गया है। इस प्रकार वैज्ञानिक, तकनीकी और आर्थिक लाभ-हानि के आधार पर भी सेतुसमुद्रम परियोजना गलत है। जबकि समिति ने राम-सेतु के ऐतिहासिक, धार्मिक महत्व को अपने आकलन में नहीं लिया है। अब यह समझने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती कि जब छह वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा गया था कि राम और राम-सेतु आदि नाम तो मिथकीय परिकल्पना हैं, तभी तय कर लिया गया था कि परियोजना को हर हाल में लागू करना है। यानी न केवल हिंदुओं की अनन्य श्रद्धा से जुड़े रामसेतु के प्रति हमारे कर्णधारों में कोई संवेदना नहीं, बल्कि उन्हें राष्ट्रीय हित और लाखों स्थानीय लोगों के जान-माल तक की परवाह नहीं है। तब यह किन निहित स्वाथरें के हित में किया जा रहा है? यह पता लगाना तो खोजी पत्रकारों का काम है। जिस तरह एक के बाद एक बड़े घोटाले और खरबों की रिश्वतखोरी से प्रभावित निर्णयों के रहस्योद्घाटनों की बाढ़ आ रही है, उससे कोई अचरज की बात नहीं होगी कि गंभीर वैज्ञानिक आकलनों को भी ताक पर रखकर रामसेतु तोड़कर व्यापारिक समुद्री मार्ग बनाने के पीछे केवल चंद लोगों का क्षुद्र स्वार्थ भर हो। बहरहाल, पचौरी समिति की रिपोर्ट की खुली हेठी की तुलना सच्चर समिति की रिपोर्ट के प्रति दिखलाए गए श्रद्धाभाव से करना भी जरूरी है। इससे भारत में दो समुदायों के प्रति शासक-बौद्धिक वर्ग की विरोधाभासी मनोवृत्ति का पता चलता है।
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साथ ही, भारत के दो प्रमुख समुदायों की तुलनात्मक ताकत का भी। रामसेतु परियोजना पर पिछले छह सालों से चल रहे विवाद में स्पष्ट देखा गया कि हिंदुओं की भावना किसी गिनती में नहीं आती। शासन, न्यायालय, मीडिया, राजनीतिक दल, बुद्धिजीवी किसी भी तबके को इसकी परवाह नहीं कि रामसेतु अनगिन सदियों से करोड़ों हिंदुओं का महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है! रामसेतु तोड़कर व्यापार करने पर सारे तर्क-वितर्क वैज्ञानिकता, आर्थिक, व्यापारिक लाभ-हानि को आधार बना कर होते रहे, जबकि दूसरे समुदाय की भावना के प्रति ऐसी अंध-श्रद्धा है कि एकांगी, अतिरंजित और मनगढ़ंत लफ्फाजी को भी आधार बनाकर उसे तरह-तरह का विशेषाधिकारी लाभ देने का कुतर्क किया जा रहा है। उस समिति की राय को किसी कसौटी पर कसने-देखने की जरूरत नहीं समझी गई, जबकि समिति के अध्यक्ष की राजनीतिक रंगत व सक्रियता जगजाहिर है। दूसरी ओर, पचौरी समिति के अध्यक्ष की वैज्ञानिक और गैर-राजनीतिक पहचान भी उतनी ही सर्वविदित है। दो समितियों की रिपोर्ट के प्रति यह दोहरी दृष्टि हमारे देश के प्रभावी वर्ग के हिंदू-विरोध और हिंदू समाज की विखंडित स्थिति की ओर भी संकेत करती है। इसे हिंदू सांप्रदायिक आरोप बताकर खारिज करना देश-हित को खारिज करने के समान होगा। गांधीजी ने भी कहा था कि भारत में देश-हित और हिंदू-हित एकदूसरे से अलग नहीं हैं। यदि हिंदुओं की उपेक्षा होती है तो यह निश्चित रूप से देश की उपेक्षा है। यह कहना कोई भावुकता नहीं, बल्कि ठोस यथार्थ है। विगत सौ सालों में ही कश्मीर से लेकर केरल और असम से लेकर गुजरात तक अनगिनत घटनाओं से, बार-बार और प्रमाणिक रूप से यह देखा जा सकता है। हिंदू दर्शन, हिंदू समाज, हिंदू तीर्थ या हिंदू ग्रंथ इनमें से किसी को भी जानबूझ कर चोट पहुंचाने वाले देर-सवेर, बल्कि लगभग साथ ही साथ भारतीय राष्ट्र, कानून-संविधान और राष्ट्रीय स्वाभिमान को भी उसी जब्र और ढिठाई से चोट पहुंचाते हैं, बल्कि वैसा करके कुटिल अंदाज में संतोष महसूस करते हैं। इसे पहचानना चाहिए। जिन्हें संदेह हो, वे पचौरी समिति को ठुकरा कर सेतुसमुद्र परियोजना बनाने पर अभी पुन: जो टीका-टिप्पणी होगी, उसमें भी इसे देख सकेंगे। अत: यदि भारत की चिंता हो तो अपनी आंखें खुली रखकर हर बात को टटोलने, परखने की जरूरत है। अन्यथा लक्षण अच्छे नहीं हैं। हमने अभी तक रामसेतु जैसी ऐतिहासिक धरोहर की सुरक्षा की बात नहीं उठाई है। यद्यपि आज के विश्व में ऐतिहासिक, पुरातात्विक और सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजना अपने आप में बहुत बड़ा मुद्दा है। उस आधार पर रामसेतु को तब भी नहीं तोड़ा जाना चाहिए, जब उससे अरबों-खरबों की आय हो और पर्यावरणीय, जैविक संतुलन को कोई हानि न हो। मगर इस बिंदु पर बड़े कुटिल अंदाज में बार-बार दोहराया जाता है कि राम और रामसेतु मिथकीय नाम हैं। ऐसा ऐतिहासिक प्रमाणिकता के सभी आधारों का खुला निरादर करते हुए कहा जाता है। यदि इतिहासलेखन के श्चोत के मानक सिद्धांत को भी आधार बनाएं तो रामायण अथवा महाभारत के विवरणों के लिए भारत की धरती पर सहस्त्रों वषरें से इतने प्रकार के भौतिक, साहित्यिक, शास्त्रीय, भौगोलिक, लोक-पारंपरिक प्रमाण उपलब्ध हैं जितने विश्व के किसी अन्य ऐतिहासिक आख्यान के लिए नहीं मिलते। दुनिया भर में मानक विद्वत-लेखन में प्रत्यक्षदर्शी विवरण, समकालीन और पुरातात्विक चिह्न, शिला-लेख, भित्ति-चित्र, शास्त्रीय ग्रंथ, साहित्य, कला-कृतियां, प्रचलित लोक-आख्यान, स्थानों के नाम, स्मारकों से जुड़ी किंवदंतियां आदि सभी कुछ को ऐतिहासिक साक्ष्य माना जाता है। विशेषकर यदि कोई साक्ष्य दूसरे साक्ष्य की बात की पुष्टि करता हो, तब तो उसकी प्रमाणिकता में कोई संदेह ही नहीं रहता। इन सभी आधारों पर रामसेतु निस्संदेह एक ऐतिहासिक सत्य है। तब इसे बिना किसी लाभ के लिए भी क्यों तोड़ा जा रहा है? संभवत: आगे किसी रहस्योद्घाटन में इस का पता चले!
इस आलेख के लेखक एस. शंकर हैं
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Tags: शास्त्रीय ग्रंथ,रहस्योद्घाटन, वैज्ञानिकता, आर्थिक, व्यापारिक
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