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राष्ट्रीय एकता के प्रणेता

जागरण मेहमान कोना
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अंग्रेज भारत को आजादी न देने के लिए तरह-तरह की कुटिल चालें चल रहे थे, साजिशें रच रहे थे और फूट डालो, राज करो की नीति के अनुसार हिंदू-मुसलमानों तथा हिंदू सवर्णो-दलितों के बीच दरार पैदा कर रहे थे। पहले जिन्ना को भड़का कर हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई खोदी और फिर स्वतंत्रता-संग्राम की मुख्यधारा को कमजोर न कर सकने पर कट्टर हिंदुओं और सदियों से सताए दलितों को सब्जबाग दिखाकर भड़काने की साजिश रची। यह राष्ट्रीय अस्मिता, एकता और अखंडता पर गहराते संकट की घड़ी थी। उच्चवर्गीय अभिजात्य श्रेष्ठता के दंभ को संभालना अपेक्षाकृत आसान था, वह भी हिंदुओं के सर्वाधिक सर्वमान्य नेता महामना मालवीय जैसे व्यक्ति के लिए। दूसरी तरफ दलितों का एक छोटा दिग्भ्रमित समूह अंग्रेजों की शह पर सामाजिक समरसता में बाधा पहुंचाने पर अड़ा था। दलितों के मतांतरण और अछूतिस्तान की मांग से राष्ट्रीय एकता और विदेशी दासता से देश की मुक्ति के महास्वप्न के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया था। महात्मा गांधी मानो इसके दूरगामी घातक दुष्परिणामों को देख रहे थे। वह राष्ट्रीय एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने और विदेशी दासता से मुक्ति की दृष्टि से स्वतंत्रता-संग्राम की मुख्यधारा को किसी भी कीमत पर बंटने नहीं देना चाहते थे। इस राष्ट्रघाती परिणाम से बेचैन गांधीजी ने सामाजिक समता की दिशा में रचनात्मक पहल की। इसी बेचैनी की कोख से बापू के अछूतोद्धार आंदोलन का जन्म हुआ।


राष्ट्रीय संकट की इस घड़ी में बापू के परम विश्वासभाजन बापू जगजीवन राम की ऐतिहासिक भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक सिद्ध हुई। उन्होंने अपने राष्ट्रव्यापी दौरे में स्वतंत्रता की अलख जगाते हुए राष्ट्रविरोधी तत्वों को करारा जवाब दिया और कहा कि दलित हिंदू धर्म के अभिन्न अंग हैं और उन्हें उससे अलग नहीं किया जा सकता। धर्म कोई कपड़ा नहीं कि फट जाए, तो उसे बदल दिया जाए। यह हमारी आत्मा से जुड़ा है। हमारे संस्कारों में रचा-बसा है। इसमें रहते हुए हम सामाजिक गैर-बराबरी के खिलाफ पूरी शक्ति से लड़ेंगे और निश्चित रूप से जीतेंगे। यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। महात्मा गांधी के अछूतोद्धार आंदोलन के अभिन्न अंग स्वरूप भारत के तमाम प्रमुख मंदिरों में दलितों के प्रवेश का राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू हुआ। उनके आदेश के अनुसार तय हुआ कि बाबूजी काशी विश्वनाथ मंदिर में प्रवेश के लिए दलितों के एक बड़े जत्थे का नेतृत्व करेंगे और कमलापति त्रिपाठी सुरक्षित मंदिर-प्रवेश की व्यवस्था करेंगे। निश्चित कार्यक्रम के अनुसार अपने जत्थे के साथ बाबूजी मंदिर की गली में पहुंचे तो देखा कि संकरी गली में सवर्ण, विशेष रूप से महिलाएं अवरोधक बनकर लेटी हुई हैं। बाबूजी ने अपने जत्थे को रोक दिया और किसी तरह मंदिर के प्रवेश-द्वार तक पहुंचे। वहां लेटी महिला के चरणस्पर्श किए और कहा-नारी में संपूर्ण देवताओं का निवास है और फिर भगवान शिव तो अ‌र्द्धनारीश्वर हैं। वे तो मेरे आराध्य हैं। सच्चे भक्त की आवाज अवश्य सुनेंगे। अहिंसक प्रतिकार के कायल बाबूजी बिना कोई विरोध जताए शांत भाव से अपने जत्थे के साथ लौट आए। सवर्णो पर इसका बहुत अनुकूल प्रभाव पड़ा। उनका अहिंसक प्रतिकार निष्फल नहीं गया। आज काशी विश्वनाथ मंदिर का द्वार सबके लिए खुला है। उन्होंने कुशल नेतृत्व का परिचय देते हुए दिग्भ्रमित दलितों को स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा से जोड़कर देश की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया। देश की आजादी, राष्ट्रीय एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने की दिशा में उनका महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अवदान सदा स्मरण किया जाएगा।


लेखिका निशि गुप्ता स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं



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