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रेलवे को उबारने की कोशिश

जागरण मेहमान कोना
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रेलवे को उबारने की कोशिश रेल भारत के आर्थिक विकास की आधारभूत संरचना का प्रमुख घटक ही नहीं, बल्कि सामाजिक विकास और क्षेत्रीय संयोजन का एक महत्वपूर्ण उपकरण भी है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि अधिकांश रेलमंत्रियों का विजनरी एप्रोच इन घटकों पर केंद्रित न होकर विशुद्ध राजनीतिक गणित द्वारा निर्मित हुआ है। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय रेल को अर्थव्यवस्था का ग्रोथ इंजन बनाने के बजाय वोट हथियाने का साधन बनाया गया। सवाल यह उठता है कि यदि सरकार को अर्थव्यवस्था की ग्रोथ की उतनी ही चिंता है, जितनी कि वह जनविरोधी नीतियों को अपनाने में दिखाती है तो फिर भारतीय रेल को राजनीतिक हथियार बनाने के बजाय अर्थव्यवस्था के प्रमुख उपकरण के रूप में क्यों नहीं अपनाया जाता। वर्ष 2013-14 के रेल बजट ने भारत के लोगों को खुश किया है या नाराज, अभी यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन बाजार स्पष्ट रूप से नाराज दिखा, क्योंकि रेल बजट के बाद सेंसेक्स 316.55 अंक लुढ़क कर पिछले तीन महीनों के न्यूनतम स्तर पर बंद हुआ, जिससे निवेशकों को एक ही दिन में 1 लाख करोड़ रुपये की चपत लग गई।

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इसका सीधा से मतलब तो यह हुआ कि रेल बजट आर्थिक विकास का भावी खाका या तो खींच नहीं पाया या फिर आर्थिक ग्रोथ बढ़ाने के लिए जो संभावित खांचा है, उसमें यह फिट नहीं बैठता। यह बजट रेल से यात्रा करने वाले भारतीयों की जेब पर कितना बड़ा डाका डालता है या कितना कम, यह सवाल उतना बड़ा नहीं होना चाहिए, जितना यह कि रेल को आने वाले समय में अर्थव्यवस्था और उसके साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक संरचना के विकास व समावेशन के लिए कितना तैयार किया जा रहा है। हालांकि रेल मंत्री ने 2013-14 का रेलवे बजट पेश करते हुए बताया है कि रेलवे पर्यावरण की सुरक्षा, सस्टेनेबल डेवलपमेंट को बढ़ावा देने और ऊर्जा की कम खपत वाली तकनीकों को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध है। ये बातें तो उनके बजट में दिखी भी हैं, लेकिन अमल में कब तक पा पाएंगी, यह पता नहीं। अब जनहित के लिहाज से पवन बंसल के रेल बजट पर नजर डाली जाए तो स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि उनका बजट एक राजनीतिक बजट है, जिसमें चुनाव की चिंता तो दिखती ही है, एक विशेष प्रकार के तुष्टिकरण का तत्व भी दिखता है। वैसे उन्होंने यात्री किराये में सीधे-सीधे तो कोई बढ़ोतरी नहीं की है, क्योंकि वे बीती 22 जनवरी को ही वे 20 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी कर चुके हैं, लेकिन उन्होंने सुपरफास्ट सरचार्ज, कैंसिलेशन चार्ज और तत्काल चार्ज में वृद्धि कर 483 करोड़ रुपये अतिरक्त जुटाने की व्यवस्था कर ली है। हालांकि उन्होंने इनहैंस रिजर्वेशन चार्ज खत्म कर यात्रियों को राहत दी है, लेकिन वास्तविकता यह है कि सरचार्ज को इनहैंस रिजर्वेशन चार्ज के साथ कम्पनसेट नहीं किया जा सकता। दूसरी तरफ रेल मंत्री पवन बंसल ने माल भाड़े में तकनीकी रूप से वृद्धि कर दी है। उन्होंने फ्यूल एडजस्टमेंट कम्पोनेंट (एफएसी) लागू किया है, जिसकी रूपरेखा पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने तैयार की थी।

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इससे रेलवे को ईधन की कीमतों में बढ़ोतरी से एक तरह से सुरक्षा मिल गई, लेकिन माल भाड़े में 5.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी से खाद्य वस्तुओं के साथ-साथ लोहा, कोयला, सीमेंट, खनिज पदार्थ आदि की ढुलाई कीमतों पर भी प्रभाव पड़ना तय है। हालांकि रेल मंत्री इससे साफ इन्कार करते हैं। उनका कहना है कि उन्होंने जो एफएसी लगाया है, वह 5.75 प्रतिशत से 5.80 प्रतिशत है। फिलहाल तो भारतीय रेलवे की नब्ज इस बजट के बाद भी धीमी और दबी हुई रहेगी। इसका पहला कारण यह है कि निवेश के लिए जिन परियोजनाओं का चयन किया जाता है, उनके पहले ठीक से उनके सभी पहलुओं का अध्ययन नहीं किया जाता है। दूसरा यह कि रेल मंत्रालय ने रेलवे की गतिविधियों के खर्च की परवाह नहीं करता। तीसरा कारण है, यात्री किराया और ढुलाई भाड़ा तय करते वक्त सेवाओं की लागत पर ध्यान न दिया जाना। परिणाम यह होता है कि परियोजनाएं लंबित आवंटित परियोजनाओं की शक्ल में ठंडे बस्ते में पड़ी रहती हैं और उनकी लागत अजगर की तरह आकार बढ़ाती जाती है। हालांकि भारतीय रेलवे के पास खर्चो पर नियंत्रण के उपाए तो हैं, लेकिन लागत तय करने का कोई वैज्ञानिक तंत्र नहीं है। ऐसे किसी तंत्र की झलक तो इस रेल बजट में भी नहीं दिखी।

इस आलेख के लेखक रहीस सिंह हैं


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Tags: रेलवे, भारतीय रेलवे, रेल बजट, कोयला, सीमेंट, खनिज पदार्थ

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