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लोगों के साथ हिस्सेदारी कहानी में जीना संसार में जीना है, लेकिन कविता में लौटना अंत:करण में लौटना है। राजी सेठ के लिए कहानी लोगों से हिस्सेदारी है। उनसे हुई वार्ताओं के संग्रह पगडंडियों पर पांव में उनके विभिन्न दौर के तनावों के बीच सृजन व मन:स्थितियों में इसी हिस्सेदारी को जाना जा सकता है.. बलराम प्रख्यात कथाकार राजी सेठ से हुई वार्ताओं के संग्रह पगडंडियों पर पांव पढ़ते हुए कई प्रश्नों ने सिर उठा लिया। मसलन, हिंदी का पहला वार्ताकार कौन है और वह पहली विभूति कौन है, जिससे वार्ता की गई? वैसे हिंदी साहित्य के इतिहास में चौरासी वैष्णव की वार्ता का नाम दर्ज तो है, पर उसे शायद हम समकालीन वार्ताओं से सहज रूप से जोड़ न सकें। कमलेश और रणवीर रांग्रा का नाम इस विधा से नत्थी जरूर है, पर हिंदी का पहला वार्ताकार होने का श्रेय उसने कहा था जैसी बहुचर्चित कहानी और कछुआ धर्म जैसे निबंध के अमर सर्जक चंद्रधर शर्मा गुलेरी को देना पड़ेगा, जिन्होंने बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही गांधर्व महाविद्यालय, लाहौर के संस्थापक, अध्यक्ष पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर जैसे दिग्गज संगीतज्ञ से वार्ता की थी, जो संगीत की धुन नाम से समालोचक के सितंबर, 1905 अंक में छपी थी। आधुनिक हिंदी में इससे पहले की कोई भेंटवार्ता नहीं दिखती।
ताज्जुब होता है कि सौ साल में हिंदी कहानी, उपन्यास, कविता, निबंध और नाटक आदि ने तो प्रतिष्ठा के शिखर छू लिए, पर संस्मरण, आत्मकथा, भेंटवार्ता, रिपोर्ताज आदि को वैसी प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी। इधर, व्यंग्य व लघुकथा लेखन के प्रति लोग कुछ गंभीर हुए हैं, पर हिंदी में श्रेष्ठ वार्ताकारों का अभाव है। कृष्णा सोबती और मनोहरश्याम जोशी की वार्ताओं में जरूर विशिष्टता नजर आती है, लेकिन मेरे साक्षात्कार सीरीज पर गौर करें तो वार्ताकार उतने महत्वपूर्ण नहीं रह गए हैं, जितने वे लोग, जिनसे वार्ताएं की गई हैं। पगडंडियों पर पांव की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है, जिसमें रेखा, अंजु शर्मा, वाजदा खान, तरसेम गुजराल, रणवीर रांग्रा, मंजू, मुक्ता, संगीता, नासिरा शर्मा, हीरालाल नागर, सुदर्शन नारंग, आर.के. पालीवाल, अनंत कीर्ति तिवारी, बलवंत कौर, लक्ष्मी कण्णन, प्रभाकर श्रोत्रिय, रमेश दवे, मजीद अहमद, अजित राय आदि से हुई राजी सेठ की 27 भेंटवार्ताएं संग्रहीत हैं। राजी सेठ से हुई इन वार्ताओं का एक सिरा 1983 में अंजू शर्मा से हुई वार्ता में है, जो 2012 में मजीद अहमद से हुई वार्ता तक चला आया है। इस तरह ये वार्ताएं राजी सेठ के तीन दशक के जीवन के विभिन्न दौरों के तनावों के बीच उनके सृजन, मनस्थितियों और विचारों से पाठकों को अवगत कराती हैं। इनसे यह भी पता चलता है कि राजी सेठ का लेखन जरा देर से, उम्र के चार दशक गंवा देने के बाद शुरू हुआ था। मजीद अहमद के सवाल का जवाब देते हुए राजी कहती हैं कि उनकी कहानियां ही अधिक छपी हैं, इसलिए वह कथाकार के रूप में ही जानी जाती हैं। उन्होंने रिल्के के पत्रों का सृजनात्मक अनुवाद भी किया है। वह मानती हैं कि कहानी में जीना संसार में जीना है, लेकिन कविता में लौटना अंत:करण में लौटना है। अपने भीतर पड़े अव्यक्त, अमूर्त और अचीन्हे से कविता में साझा होता है, जिसे व्यक्त करते हुए कविता लोगों की संवेदना में शामिल होती है, जबकि कहानी लोगों के साथ हिस्सेदारी की तरह सामने आती है। स्त्री-विमर्श के समकालीन परिदृश्य पर राजी सेठ कहती हैं कि असहमतियों के टकराव को वह गलत नहीं मानतीं। वह सहमति तक पहुंचने के पहले की अवस्था है। रगड़ खाने से ही जीवनदायिनी अग्नि पैदा होती है। वह स्त्री को कमजोर नहीं मानतीं। वह मानती हैं कि पुरुष की तुलना में स्त्री कहीं ज्यादा विवेकशील, समर्थ, संवेदनशील, लचीली, उत्तरदायी और दृष्टिवान होती है। राजी सेठ को लगता है कि स्त्री को दीनता-हीनता की मानसिकता से निकलकर अपनी आत्मशक्ति को पहचानना चाहिए और पुरुषों जैसा चरित्र पा लेने के संघर्ष से बचना चाहिए। अपनी लड़ाई उधार के अस्त्रों से नहीं लड़ी जा सकती, न ही पुरुष के अखाड़े में कूद जाने से समस्या हल होती है। स्ति्रयों ने ही नैतिक मोर्चा संभाला है वे आधी आबादी हैं। शेखर: एक जीवनी हो या प्रिंट लाइन, ज्यादातर उपन्यासों में आत्मकथात्मक तत्व होते ही हैं, जिन पर अक्सर बहस होती रहती है।
इस संदर्भ में अंजु शर्मा ने राजी सेठ से कहा कि आपके उपन्यास तत्-सम में भी आत्मकथात्मक तत्व नजर आते हैं। इस पर राजी ने असहमति जताते हुए कहा कि इसकी थीम मुझमें बाहर से आई और पात्र भी। इसे लिखने की प्रेरणा राजी को अपने निकट के पात्रों की मानसिकता को नजदीक से देखने से मिली। जीवन के प्रति उन पात्रों के रवैये ने समस्या के नैतिक-सामाजिक पक्षों पर सोचने के लिए उन्हें विवश किया। हां, उपन्यास में चित्रित आत्मबोध जरूर अपना है, वह उन्हें पात्रों के जीवन से नहीं मिला। वह शायद हर लेखक का अपना ही होता है। राजी सेठ के व्यक्तित्व निर्माण में जीवन स्थितियों का क्या योगदान रहा और दिल्ली ने उन पर कैसा प्रभाव डाला? इसके जवाब में राजी ने बताया है कि शुरू में आर्थिक कठिनाइयां रहीं, क्योंकि पिता भारत विभाजन के शिकार हुए। विस्थापन के कारण रोजमर्रा का जीवन, पढ़ाई-लिखाई, अलग तरह का माहौल, परिस्थितियों का उतार-चढ़ाव, सांस्कृतिक प्रभावों की अदला-बदली और अंतरप्रदेशीय विवाह भाषिक सीमाओं के पार देख सकने को प्रेरित करते रहे। पिता के घर संघर्ष दूसरे थे, ससुराल में दूसरे। ऐसे में उनकी बेचैनी उन्हें निजी तलाश की ओर ले गई। ऐसी क्षुधा, जो मन में सतत बनी रहकर जीवन का उत्तर सामने बिछे जीवन से मांगती है। लेखन इसी तलाश में हाथ लगा। उसके होने की अनुकूलता अपने भीतर होने का अहसास उन्हें था। लेखन की राह चुनी तो उसके लिए अपने आसपास स्वीकृति पाने की लड़ाई शुरू हुई। यह लड़ाई लेखन की राह चुनने से ज्यादा बड़ी है, क्योंकि उसका संबंध दूसरों से भी है। यह लड़ाई जीवन पर्यंत चलती रहती है। राजी सेठ से हुई भेंटवार्ताओं का यह संग्रह जीवन, साहित्य, कला, दर्शन और संस्कृति का ऐसा आईना है, जिसमें राजी सेठ के चेहरे के साथ पाठक अपना चेहरा भी देख सकते हैं।
इस आलेख के लेखक बलराम हैं
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