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इस वर्ष 22 अप्रैल को मनाए गए पृथ्वी दिवस के आयोजन पर दुनिया भर के पर्यावरणवादियों की चिंता का मुख्य विषय था- धरती के सामने मौजूद जलवायु परिवर्तन की समस्या। इस अवसर पर यह तथ्य भी रेखांकित किया गया कि इस समस्या के मूल में इंसान का लालच है जो भौतिक सुखों की लालसा में उसे पृथ्वी का ज्यादा दोहन करने के लिए प्रेरित कर रहा है। अब तक ज्ञात ब्रह्मांड में इस धरती पर जीवन की मौजूदगी पृथ्वी के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, लेकिन विडंबना देखिए कि यह जीवन इस धरती के लिए ही संकट खड़े कर रहा है। पिछले कुछ समय से वैज्ञानिक और पर्यावरणवादी दावा कर रहे हैं कि इंसान जिस गति से धरती के संसाधनों का दोहन कर रहा है, उसके सामने यह पृथ्वी छोटी पड़ने लगी है। इन विज्ञानियों के मुताबिक दोहन की मौजूदा गति के हिसाब से फिलहाल हम इंसानों को सवा पृथ्वियों की दरकार है। यदि यह दोहन बढ़ता ही गया और संसाधनों की लूट इसी तरह जारी रही तो संकट इस जीवन व पृथ्वी के ही खत्म हो जाने का है। यह तो तय है कि पृथ्वी हमेशा वैसी तो नहीं रह सकती थी, जैसी वह हमें आरंभ में मिली थी, क्योंकि शायद तब हमें वह विकास नहीं दिखाई देता जो संसाधनों के दोहन के बल पर इंसान ने हासिल किया है। पर मुश्किल तब खड़ी होती है, जब यह दोहन सीमा से ज्यादा होता है।
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इस लालच के नतीजे बिल्कुल साफ हो चुके हैं। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, दुनिया में पीने लायक साफ पानी की मात्र घट रही है, वनक्षेत्र सिकुड़ रहे हैं, नमी वाले क्षेत्रों (वेटलैंड्स) का खात्मा हो रहा है। संसाधनों के घोर अभाव के युग की आहट के साथ-साथ हजारों जीव और पादप प्रजातियों के सामने विलुप्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। असल में, इंसान पिछले 50-60 वषों से धरती के उपलब्ध संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन कर रहा है, जिसके फलस्वरूप पृथ्वी का प्राकृतिक चेहरा बिगड़ गया है। ऐसे खुलासे हालांकि पहले भी कई बार हुए हैं, पर ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे के निदेशक क्रिस रैप्ले ने इकोलॉजिकल फुटप्रिंट की अवधारणा के तहत धरती के समक्ष मौजूद खतरों की जो तस्वीर सामने रखी है, उनसे पता चलता है कि बढ़ती मानव आबादी आने वाले वक्त में इस धरती के विनाश का कारण बन जाएगी। आबादी में तेज बढ़ोतरी के कारण पूरी दुनिया में ऊर्जा की खपत बढ़ रही है, खाद्यान्न की समस्या और विकराल हो रही है, प्रदूषण घातक रूप ले चुका है और धरती को जलवायु परिवर्तन की समस्या से सतत जूझना पड़ रहा है।
95 देशों के अलग-अलग क्षेत्रों के 1360 विशेषज्ञ 2.4 करोड़ डॉलर के भारी-भरकम खर्च से मिलेनियम इकोसिस्टम एसेसमेंट (एमए) नामक जो रिपोर्ट तैयार कर चुके हैं, उसमें भी यही बात कही गई है। एमए प्रोजेक्ट के मुखिया और विश्व बैंक में चीफ साइंटिस्ट रॉबर्ट वाटसन के शब्दों में कहें, तो हमारा भविष्य हमारे ही हाथ में है, पर दुर्भाग्य से हमारा बढ़ता लालच भावी पीढ़ियों के लिए कुछ भी छोड़कर नहीं जाने देगा। उनकी रिपोर्ट कहती है कि इंसान का प्रकृति के अनियोजित दोहन के सिलसिले में यह दखल इतना ज्यादा है कि पृथ्वी पिछले 50 वषों में ही इतनी ज्यादा बदल गई है जितनी कि मानव इतिहास के किसी काल में नहीं बदली। आधी शताब्दी में ही पृथ्वी के अंधाधुंध दोहन के कारण पारिस्थितिकी तंत्र का दो-तिहाई हिस्सा नष्ट होने के कगार पर है।
जीवाश्म ईंधन यानी पेट्रोल-डीजल के बढ़ते प्रयोग और जनसंख्या-वृद्धि की तेज रफ्तार धरती के सीमित संसाधनों पर दबाव डाल रही है। इस वजह से सिर्फ भोजन का ही नहीं, बल्कि पानी, लकड़ी, खनिजों आदि का भी संकट दिनोंदिन गहरा रहा है। आज जिस पेट्रोल-डीजल के भंडार पर मानव प्रजाति अपनी सफलता की मीनारें खड़ी कर इतरा रही है, दोहन की गति ऐसी ही रहने पर यह इमारत ढहने में समय नहीं लगेगा, क्योंकि तेल के सभी स्नेत तब सूख चुके होंगे।
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