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सपा और बसपा ने खुदरा व्यापार में एफडीआइ के मुद्दे पर संसद में जो आचरण किया, उसकी सिर्फ भर्त्सना की जा सकती है। जब से सरकार द्वारा इस नई नीति की घोषणा की गई है, ये दोनों दल उसका उग्र विरोध करते रहे हैं। अगर वे अपने इस रुख पर अड़े रहते तो सरकार के इस विधेयक का गिर जाना निश्चित था। संसद की वास्तविक राय भी यही है, लेकिन इस राय पर सरकार का कृपा पात्र बने रहने की इच्छा भारी पड़ी। यह विपक्ष की राजनीति में सत्ता पक्ष की सुरंग है। सुरंग भी क्या कहें। यह गुप्त होती है, जमीन के भीतर होती है, इसका लक्ष्य होता है गोपनीय रास्ते से किसी जगह पर पहुंचना, लेकिन सपा और बसपा, दोनों ने निर्वस्त्र हो कर नृत्य किया और सभी को दिखला दिया कि जहां सिद्धांत और सत्ता के बीच द्वंद्व हो, वहां वे सत्ता का साथ देंगे। साल भर पहले इन दोनों दलों ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ा था।
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यह राज्य की राजनीति का मामला था। केंद्र की राजनीति में वे कांग्रेस के साथ हैं, क्योंकि उन्हें राज्य में भी सत्ता में हिस्सेदारी चाहिए और केंद्र में भी। नीरज की पंक्ति याद आ रही है, एक पांव चल रहा अलग-अलग, और दूसरा किसी के साथ है, लेकिन यहां दोनों पांव एक ही दिशा में लेफ्ट-राइट कर रहे हैं। ऐसे में राजनीति पर लिखने का मन कैसे करे? शायद इसीलिए राजनीति पर लिखने की जरूरत बढ़ती जाती है। अब यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अन्य विपक्षी दलों को ममता बनर्जी द्वारा प्रस्तावित अविश्वास प्रस्ताव क्यों रास नहीं आया। शुरू में तो इसे लेकर वे बहुत उत्साहित थे, लेकिन जब उन्हें लगा कि इससे तो सरकार गिर भी सकती है, तो वे सकते में आ गए। ममता फैक्टर ममता बनर्जी को वर्तमान सरकार के गिर जाने पर होने वाले चुनाव से कोई डर नहीं है, क्योंकि वे वास्तव में खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का विरोध करती हैं और इसके लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं। यही उन्होंने वाम मोर्चा के शासन में किया था। जान का जोखिम उठाकर उन्होंने माकपा की इस नीति का विरोध किया कि औद्योगीकरण के लिए किसानों को उनके एकमात्र जीविका-स्त्रोत खेती की जमीन से वंचित किया जा सकता है।
ममता को विकास या औद्योगीकरण का पूरा अर्थशास्त्र मालूम नहीं है, इसीलिए वे कोई वैकल्पिक रास्ता सुझा नहीं पातीं, लेकिन अपने अंतज्र्ञान से वह समझ जाती हैं कि किस चीज से गरीबों का नुकसान हो सकता है। इसके बाद वह उसके पीछे पड़ जाती हैं। ऐसा नहीं है कि सत्ता से उन्हें मोह नहीं है। सत्ता में साझेदारी के लिए वह भाजपा सरकार में भी रहीं और भाजपा का विरोध करने वाली संप्रग में भी, लेकिन जब भी उन्हें लगा कि भाजपा सरकार या संप्रग सरकार द्वारा जन-विरोधी कदम उठाया जा रहा है, उन्होंने केंद्र में मंत्री पद त्याग देने में तनिक भी देर नहीं की, लेकिन सपा-बसपा विपक्ष में रहते हुए भी सत्ता का सुख भोगना चाहती हैं। यह सही है कि सत्ता पक्ष हमेशा खयाल रखता है कि चुनाव की तारीखें उसके अनुकूल हों। इसके लिए वह चुनाव के पहले तरह-तरह की नीतिगत घोषणाएं भी करता है, लेकिन क्या विपक्ष को भी यही चतुराई दिखानी चाहिए? फिर तो राजनीति चूहे-बिल्ली का खेल बन कर रह जाएगी। विपक्ष अगर समझता है कि मौजूदा सरकार तुरंत हटाए जाने के काबिल है, तो उसे अगले चुनाव का इंतजार नहीं करना चाहिए। लोहिया का यह वाक्य अमर है कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं। शायद हमें जिंदा कौम बनने में वक्त लगेगा। इसमें राजनीति का सहयोग जरूर चाहिए, पर हमारी राजनीति तो इंतजार करने की आदी हो गई है। क्या हसीन नजारा है। राजनीति करते हैं और चुनाव से डरते हैं। अविश्वास प्रस्ताव के विरोध में एक तर्क यह दिया गया था कि अगर विपक्ष हार जाता है, तो सरकार की प्रतिष्ठा बढ़ जाएगी। यह इसलिए भी कुतर्क था कि अविश्वास प्रस्ताव पर बहस कई-कई दिनों तक चलती तथा उसमें अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों की भी चर्चा हो सकती थी। अविश्वास प्रस्ताव की विश्वास गाथा अविश्वास प्रस्ताव का लक्ष्य हमेशा सरकार गिराना नहीं होता। लोकसभा में पहला अविश्वास प्रस्ताव राममनोहर लोहिया ने पेश किया था। तब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। संसद में उनका पूर्ण तथा विश्वसनीय बहुमत था।
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लोहिया को अच्छी तरह पता था कि उनका प्रस्ताव गिरेगा, फिर भी उन्होंने नेहरू सरकार के कामकाज पर बहस का मौका नहीं छोड़ा। अविश्वास प्रस्ताव पर वर्तमान विपक्ष को जो आशंका थी, क्या वह धारा 168 के तहत बहस कराने पर भी लागू नहीं हुई? परिणाम वही निकला जिसका विपक्ष को डर था। जैसे भी हुई, सरकार की ही जीत हुई। अब वह दावा कर सकती है कि खुदरा व्यापार में एफडीआइ के प्रवेश पर संसदीय सहमति की मुहर लग चुकी है। विपक्ष के छल के कारण ही सरकार का यह छल सफल हुआ है। अपने छल के बारे में बसपा का स्पष्टीकरण सबसे मजेदार है। उसका तर्क यह है कि वर्तमान सरकार के गिर जाने पर भाजपा की सरकार बन जाएगी, इसलिए भाजपा का विरोध करने के लिए हम सरकार का समर्थन कर रहे हैं। यह तर्क लोकतंत्र की बुनियादी स्थापना की अवहेलना करता है। लोकतंत्र की मांग यह है कि सरकार को लोक मत का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। जो सरकार जनता की निगाह में गिर चुकी है, उसे एक मिनट भी टिके रहने का अधिकार नहीं है। इस तर्क से, अगर आज जनमत सचमुच भाजपा के पक्ष में है (वास्तव में जो है नहीं), तो सरकार बनाने का अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए? अगर वह अपनी रीति-नीति के कारण सरकार में आने के योग्य नहीं है (मेरे खयाल से, वह योग्य नहीं है), तो कृपया निर्वाचन आयोग के पास जाइए और उसकी मान्यता रद कराइए। राजनीतिक लड़ाई के साथ-साथ कानूनी लड़ाई भी लड़ी जानी चाहिए।
लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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