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त्रिवेदी इसमें कोई संदेह नहींकि देश में साक्षरता बढ़ी है। शिक्षा के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है। मगर सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है कि शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता रसातल की ओर जा रही है। ऊंचे दर्जे के स्कूलों को छोड़ दें तो कमोबेश सभी निजी और सरकारी प्राथमिक-माध्यमिक स्कूलों की शिक्षा दिशाहीन हो चुकी है। इसकी सबसे बड़ी वजह है शिक्षा व्यवस्था की सबसे अहम कड़ी यानी शिक्षक की अनदेखी। सरकारी स्कूलों में शिक्षक ों की स्थिति बाबू जैसी हो गई है। सरकार का ध्यान सिर्फ स्कूलों की संख्या बढ़ाने पर है, लेकिन ऐसी दोषपूर्ण और गुणवत्ताविहीन शिक्षा वयस्क हो रहे बच्चों और उनके अभिभावकों में असंतोष पैदा कर रही है। शिक्षकों ने भी अपना ध्येय सिर्फ वेतन तक सीमित कर लिया है। दरअसल, प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी बना दी गई है कि उन पर शिक्षण के अलावा दूसरे कामों का बोझ लाद दिया गया है। मिड-डे मील के रखरखाव, भोजन बनने और वितरण में ही शिक्षकों का ज्यादातर समय बीतता है। कई सर्वेक्षणों में यह सामने आया है कि शिक्षकों को इस बात का डर लगा रहता है कि कहींमिड-डे मील की गुणवत्ता खराब न हो जाए और इसके लिए उन्हें दोषी न ठहरा दिया जाए। दूसरा यह कि प्राथमिक शिक्षकों को सरकार भारी भरकम वेतन तो दे रही है मगर फिर भी उनमें अध्यापन के प्रति कोई लगाव दिखाई नहीं देता। यहां सबसे बड़ी चूक है शिक्षकों की जवाबदेही का अभाव।
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सरकार को समझना होगा कि शिक्षकों का मसला डॉक्टरों से अलग है। डॉक्टर तो शहरों में स्थित मेडिकल कॉलेजों से ही निकलते हैं मगर शिक्षा व्यवस्था स्थानीय माहौल में ढली होनी चाहिए। सरकार के पास ऐसा कोई निगरानी या जांच तंत्र नहींहै जो बच्चों की क्षमता और पढ़ाई के स्तर का स्वतंत्र और निष्पक्ष आकलन कर सके। तमाम गैर सरकारी संगठन ही नमूनों के आधार पर इस काम में जुटे हैं। एक गैर सरकारी संगठन प्रथम ने जिस तरह प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था की पोल खोली है, वह आश्चर्यजनक है। कक्षा तीन का छात्र अगर जोड़-घटा जैसी चीजें भी न कर पाए या उसे एबीसीडी भी न आती हो तो क्या फायदा अरबों रुपये के संसाधन झोंकने का। अंतरराष्ट्रीय संगठन पीसा की रिपोर्ट में भी सरकारी स्कूलों के ब्च्चों के निम्न बौद्धिक स्तर का खुलासा किया गया है। वास्तव में किसी भी काम का बेहतरीन परिणाम उसके प्रति ईमानदारी, नैतिक-मानसिक जुड़ाव से तय होता है। अध्यापन कार्य तो सीधे तौर पर इसी पर निर्भर है। शिक्षक कितना भी पढ़ा लिखा हो, अध्यापन की कुशलता का पैमाना छात्रों की सीखने और समझने की क्षमता को आंक कर ही तय किया जा सकता है। यह प्रत्यक्ष है कि आकर्षक वेतन और आरामदायक व गैर जवाबदेही का माहौल देखकर लोगों में सरकारी शिक्षक बनने की होड़ सी लगी है। ठीक-ठाक वेतन के लालच में 100-150 किमी दूर से शिक्षक दूरदराज के गांवों में आ तो रहे हैं, लेकिन नतीजा शून्य है। अध्यापकों में उन गरीब ग्रामीण बच्चों का जीवन सुधारने की कोई बेचैनी नहींहै। सरकार ने यहींगलती की।
प्राथमिक स्कूलों के लिए पंचायत या ब्लॉक स्तर पर ही शिक्षकों की नियुक्ति करनी चाहिए थी। अगर पंचायत या ब्लॉक का ही शिक्षक होता तो उस पर स्थानीय दबाव होता और उन बच्चों से जुड़ाव होता। यहींगांधी जी की ग्राम स्वराज की अवधारणा की आत्मा थी, जिसका सरकार ने गला घोंट दिया। स्थानीय शिक्षक होने का एक लाभ यह भी है कि अभिभावकों और स्थानीय पंचायत के सदस्य एक अनौपचारिक निगरानी और शिकायत निवारण तंत्र की तरह काम करते। अब समय आ गया है कि केंद्र व राज्य सरकारें अपने स्तर पर निगरानी तंत्र स्थापित करें। लेकिन उसका कार्यक्षेत्र सिर्फ अध्यापन और छात्रों के बौद्धिक स्तर के आकलन तक ही सीमित रखना होगा। वरना प्रशासनिक तंत्र के साथ उलझाव बना रहेगा। हां, इस तंत्र का स्वायत्त और गैर सरकारी होना बहुत जरूरी है, जिससे हकीकत सामने आ सके। इस तंत्र पर एक निश्चित समयांतराल में जिला स्तर पर अपनी रिपोर्ट सौंपने की जिम्मेदारी होनी चाहिए। दरअसल हर राज्य और यहां तक कि क्षेत्रीय स्तर पर जरूरतें और समस्याएं अलग-अलग हैं, इसलिए एक पैमाने के आधार पर सबका आकलन नहींकिया जा सकता। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को उद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए कम से कम राज्य स्तर पर समान पाठ्यक्रम और अध्यापन पद्धति की जरूरत है। इस निगरानी तंत्र के दायरे में निजी स्कूलों को भी शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि अब क्वांटिटी नहीं क्वालिटी पर जोर देने का वक्त है।
अमरीश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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