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संप्रग का नया संकट

जागरण मेहमान कोना
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Swapan das guptaकेंद्र सरकार के प्रति शरद पवार और उनके दल की नाराजगी का निहितार्थ तलाश रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता


अगले सप्ताह से लंदन ओलंपिक शुरू होने जा रहा है। हैरत की बात है कि खेल की शब्दावली अब राजनीति में भी चल रही है। आजकल किनारे करने की बड़ी चर्चा है। हर कोई एक-दूसरे को हाशिये पर ढकेलने में लगा है। जब एपीजे अब्दुल कलाम ने राष्ट्रपति चुनाव न लड़ने का फैसला लिया और शिवसेना तथा जनता दल (यू) ने पाला बदल लिया तो राजग किनारे लग गया। प्रणब मुखर्जी की उम्मीदवारी को समर्थन देने के साथ ममता बनर्जी के आक्रामक तेवर भी शांत हो गईं। अंत में खबर आई कि शरद पवार ने भी विद्रोह का बिगुल बजा दिया है, क्योंकि कांग्रेस ने उन्हें कोने में धकेल दिया है। दरअसल शरद पवार और उनका दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को हाशिये पर धकेल दिए जाने का कोई पूर्वानुमान नहीं लगा पाया। ममता बनर्जी को तथाकथित कोने में धकेले जाने के बाद स्वाभाविक था कि कांग्रेस अब सबके होश ठिकाने लगाने के काम में जुट जाएगी। कमजोर मानसून के बावजूद लंबे समय से अटके हुए आर्थिक सुधार तेज करने के प्रयास जारी हैं, हामिद अंसारी का फिर से उपराष्ट्रपति बनना आसान नजर आ रहा है और राहुल गांधी ने भी बड़ी राजनीतिक जिम्मेदारी निभाने के लिए सैद्धांतिक सहमति प्रदान कर दी है। संक्षेप में, सुख के दिन फिर से लौट आए हैं और कांग्रेस तथा संप्रग की पौ-बारह है। ऐसे अनुपयुक्त माहौल में शरद पवार को क्या सूझी कि वह प्रदर्शित करने लगे कि वह सर्कस के शेर नहीं हैं? निश्चित तौर पर उन जैसा सुलझा हुआ राजनेता इस बात पर सरकार से बाहर होने नहीं जा रहा है कि उसे मंत्रिमंडल की बैठक में सीटों की व्यवस्था पसंद नहीं आ रही है? अगर महाराष्ट्र में कांग्रेस के शीर्ष स्तर से आने वाली फुसफुसाहट को संकेत माना जाए तो शरद पवार को कोने में धकेले जाने का अहसास तब हुआ जब राकांपा कोटे के मंत्री के सिंचाई घोटाले में फंसने तथा दिल्ली में महाराष्ट्र सदन के निर्माण में छगन भुजबल के रिश्तेदारों के शामिल होने पर हंगामा मचा।


महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री द्वारा जारी किए गए श्वेतपत्र में सिंचाई मामले पर सवाल उठाए गए हैं। कहा गया कि ये दोनों घोटाले सार्वजनिक किए जाने वाले थे और कोने में धकेल दिए गए पवार के पास सरकार से बाहर होने की धमकी देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। चूंकि गठबंधन धर्म का मतलब हो गया है कि इसमें शामिल प्रत्येक पार्टी को बिना किसी भय या संकोच के अपनी मनमानी करने का अधिकार है इसलिए राकांपा नेताओं ने भी इस राजनीतिक अधिकार का बेधड़क इस्तेमाल किया। आधी रात को कुछ इसी तरह की साठगांठ कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के मुखिया के बीच हुई थी, जिसके बाद ममता बनर्जी हतप्रभ रह गई थीं। सवाल यह है कि आखिर शरद पवार ने खुद को ठगा-सा महसूस क्यों किया? यह सही है कि उनके लोकसभा में नौ सांसद हैं, जबकि संप्रग सरकार में शामिल होने वाले नवीनतम दल अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के महज चार सांसद। इतने कम संख्या बल के बावजूद रालोद प्रमुख ने नागरिक उड्डयन के महानिदेशक को पद से हटा दिया। यह अधिकारी समस्या बनता जा रहा था।


अजित सिंह को तो महसूस नहीं हुआ कि उन्हें किनारे कर दिया गया है, न ही कांग्रेस को अपने इस छोटे सहयोगी के संभावित कपट से शर्मसार होना पड़ा है। तब महाराष्ट्र में दो घोटालों के उद्देश्यपरक खुलासे से शरद पवार के मन में कोने में धकेले जाने का ख्याल क्यों आया? क्या कांग्रेस को खुद को कोने में धकेले जाने का अहसास हुआ है? क्या उसका चेहरा शर्म से लाल हुआ है कि उसने एक हथियारों के सौदागर को रक्षा सौदे की गोपनीय फाइलें दिखा दीं? इस दलाल की काबिलियत महज यह है कि उसके पिता ने 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी का प्रसिद्ध नारा उछाला था। इन विचित्र घटनाओं का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि सरकार ने लोकतंत्र व सभ्य शासन की धुरी यानी शर्म-हया से पूरी तरह पल्ला झाड़ लिया है। सीबीआइ के संपूर्ण क्षय पर सरकार को जरा भी शर्म नहीं आती। यह इस बात से सिद्ध हो जाता है कि पवार के विद्रोह की खबर आने के बाद ट्विटर पर अनेक टिप्पणियां आईं, जिनमें संभावना जताई गई है कि अब राकांपा नेता के दरवाजे पर सीबीआइ दस्तक देने ही वाली है। भारत के आधुनिकीकरण के प्रमुख पैरोकार की छवि वाले योजना आयोग के उपाध्यक्ष के चेहरे पर भी शर्म का नामोनिशान नहीं है, जो राजनीतिक समीकरणों के आधार पर राज्यों को पैसा देता है। संप्रग में राजनीति हताशा की हदों को छू गई है। अगर कांग्रेस पवार की छवि को कलंकित करना चाहती है तो उन्हें डरने की जरूरत नहीं है। संभवत: उन्हें अहसास हो गया है कि कांग्रेस के संकटमोचक इस बात से अनभिज्ञ हैं कि सरकार के साथ लंबे सहयोग के नतीजे खराब ही निकलने हैं।


मंत्रिमंडल और सरकार से बाहर निकलने का नतीजा जोखिम भरा हो सकता है। पवार ऐसे समझौते पर राजी हो सकते हैं, जिससे महाराष्ट्र में उनके हितों की रक्षा हो सके। वह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज च ाण को हटाने पर भी जोर दे रहे हैं। आखिरकार, यह मुद्दा केवल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से ही नहीं जुड़ा है, बल्कि इसमें कांग्रेस नेताओं से संबंध रखने वाली बिल्डर लॉबी भी शामिल है, जो पृथ्वीराज च ाण को हटाने के लिए पूरा जोर लगा रही है, किंतु इस समझौते से अल्पकालिक शांति ही खरीदी जा सकती है। दीर्घकाल में पवार जगन मोहन रेड्डी के रास्ते पर चलने से ही संतुष्ट हो सकते हैं, जिन्होंने कांग्रेस से सीधा मुकाबला किया और अपनी राजनीतिक शक्ति को कायम रखा। जगनमोहन रेड्डी सीधे जनता के बीच उतरे और उनकी क्षेत्रीय भावनाओं को अपने पक्ष में भुनाया। भाजपा संप्रग सरकार की असफलताओं के कारण उपजे सत्ताविरोधी रुझान का पूरा लाभ उठाने की स्थिति में नजर नहीं आती। इसलिए 2014 के चुनाव में एक नया मोर्चा बनने की प्रचुर संभावना नजर आ रही है। लगता है कि शरद पवार इसी खेल के प्रति अपनी प्राथमिकताओं का इशारा कर रहे हैं।


वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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