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सच हो रहा है सुल्ताना का सपना

जागरण मेहमान कोना
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बीसवीं सदी के पूर्वा‌र्द्ध की मशहूर बांग्ला लेखिका और समाजसुधारक रोकैया सखावत हुसैन ने फन्तासी की शक्ल में एक कहानी लिखी थी -सुल्ताना का सपना। यह एक ऐसे स्थान की कल्पना करती है, जहां स्ति्रायों का राज हो गया है और पुरुष उस भूमिका में पहुंचा दिए गए हैं, जो पुरुष प्रधान समाज में स्ति्रयों के लिए तय की गई थी। सऊदी अरब में सुल्ताना का सपना पूरा होता दिख रहा है, अलबत्ता एक महत्वपूर्ण फर्क के साथ। वहां पुरुषसत्ता के निर्देश पर ही महिलाओं का एक अलग शहर बनने जा रहा है। सऊदी अरब सरकार ने पिछले दिनों ही होफूफ नाम के पूरब में बसे शहर के पास एक ऐसा औद्योगिक शहर बनाने का ऐलान किया था, जो सिर्फ महिलाओं के लिए होगा। इस शहर का निर्माण कार्य अगले साल शुरू हो जाएगा। यहां महिलाओं को नौकरियां करने की आजादी होगी, लड़कियां यहां आकर अपने मनपसंद करियर की दिशा में कदम बढ़ा सकेंगी। मोडोन के नाम से प्रचलित सऊदी इंडस्टि्रयल प्रॉपर्टी अथॉरिटी ने यह शहर बनाने का प्रस्ताव रखा है। यहां करीब 50 औद्योगिक प्रोजेक्ट बनेंगे, जो महिलाओं द्वारा ही संचालित होंगें। इनमें लगभग 5,000 महिलाओं को रोजगार मिल सकेगा। कहा जा रहा है कि होफुफ के पास बन रहे इस शहर की तर्ज पर ही देश में कई दूसरे शहर भी बनाए जाएंगे, जो शरिया कानून और सऊदी प्रथाओं पर संचालित होंगे।


मोडोन के मुताबिक इन शहरों में पुरुषों के आने पर भी कोई पाबंदी नहीं रहेगी। हां, उन्हें महिलाओं से अलग काम करना पड़ेगा। सऊदी महिलाओं के अधिकारों के लिए सक्रिय कार्यकर्ता और ब्लॉगर एमान फहद अल नफजान ने एक साक्षात्कार में कहा था कि अभी चीजें साफ नहीं हैं। उनका कहना था कि यहां फार्मास्युटिकल्स और फूड प्रोसेसिंग का काम होगा, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, जिसे बार-बार दोहराया जा रहा है कि काम ऐसे होंगे जो महिलाओं की प्रकृति के अनुकूल होंगे। सऊदी सरकार दो वजहों से ऐसे शहरों के निर्माण के लिए तैयार हुई है। एक, रूढि़वादी तत्वों में एक हल्के का दबाव, और दूसरा वहां स्नातक महिलाओं की बहुलता। रूढि़वादी तत्वों का एक तबका सरकार पर लगातार दबाव बनाता रहा है कि अलग किए इलाकों में महिलाओं को काम करने की इजाजत दी जानी चाहिए। दूसरे कारण पर गार्जियन अखबार ने भी जोर डाला है। दरअसल, वहां कुल स्नातकों में महिलाओं का अनुपात 60 फीसद है, जिनमें से 78 फीसद बेरोजगार हैं। यहां कर्मचारियों की संख्या में महिलाओं का अनुपात महज 15 प्रतिशत ही है। सऊदी समाज से परिचित बता सकते हैं कि महिलाओं के लिए अलग शहर बनना, वहां के वातावरण के हिसाब से अजूबा नहीं है। यहां पहले से ही लड़कियों के अलग स्कूल, अलग विश्वविद्यालय और यहां तक कि सार्वजनिक स्थानों पर अलग प्रवेशद्वार की संस्कृति रही है। यह दुनिया का एकमात्र देश है जहां महिलाएं खुद ड्राइव नहीं कर सकतीं। महिलाओं को मॉल में काम करने की अनुमति देने के बाद से श्रम मंत्रालय के पास अतिरूढि़वादी शेखों के प्रतिनिधिमंडल पहुंच रहे हैं।


सरकार की भी कोशिश है कि देश के विकास में महिलाओं की भी भागीदारी हो, लेकिन इस पूरी जद्दोजहद के बीच एक बात छूट रही है, जिस पर अधिक चर्चा नहीं हो रही है। वह बात है महिलाओं की सोच में आए बदलाव की। इस देश की महिलाएं खुद पर लादी गई परिस्थितियों को ही अपनी नियति मानकर बैठे नहीं रहना चाहती हैं। पिछले दिनों हुई घटनाओं से इस बात को और बल मिलता है। कुछ समय पहले ही खबर आई थी कि सऊदी अरब में धार्मिक कट्टरपंथ के खिलाफ महिलाओं का गुस्सा बढ़ रहा है। एक महिला ने तो एक धार्मिक पुलिस पर गोली ही चला दी थी तो दूसरी घटना में महिला ने एक अफसर को ऐसा सबक सिखाया था कि वह गश खाकर गिर पड़ा था। दरअसल, ऑस्ट्रेलिया के एक अखबार ने धार्मिक पुलिस विभाग के एक प्रवक्ता के हवाले से बताया कि जब एक स्त्री-पुरुष पार्क में बैठे थे, तब धार्मिक पुलिस ने उनकी पहचान पूछी। इससे महिला को गुस्सा आ गया और उसने पुलिसकर्मी के नाक पर घूसा जमा दिया। दरअसल, लोगों को जबरन काबू में रखने की भी एक सीमा होती है। देर से ही सही, लेकिन इसका प्रतिरोध होता ही है। वह प्रतिरोध कितना सुनियोजित, मजबूत और प्रभावी होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि प्रतिरोध करने वाले कितने संगठित हैं। जहां तक सऊदी अरब की बात है तो वहां मीडिया और इंटरनेट ने भी लोगों को विरोध करने के लिए प्रेरित किया है। इस मुल्क में पुण्य के काम को बढ़ावा देने और पाप को रोकने के लिए बाकायदा एक आयोग बनाया गया है, जिसकी जिम्मेदारी है धार्मिक कानूनों को लागू कराना। इसका काम अब दिन-प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है।


एक तरफ, जहां महिलाओं को किसी गैर मर्द से संपर्क बनाने से रोकने वाले कानून हैं और उन पर अमल कराने की जिम्मेदारी धार्मिक पुलिस पर है, वहीं यह भी देखने में आया है कि सऊदी शासन ने कुछ कदम महिला सशक्तीकरण की दिशा में भी उठाए हैं। सऊदी अरब के राजा ने जब लड़के-लड़कियों के लिए एक ही स्कूल खोला था, तब भी कट्टरपंथियों ने इसका विरोध किया था। तभी से इस मुल्क में सहशिक्षा पर बहस जारी है। इस बीच, सरकार ने धाार्मिक पुलिस की छवि सुधारने का भी प्रयास किया है। नए निदेशक की नियुक्ति की गई। उन्होंने आते ही घोषणा की कि वह धार्मिक पुलिस के लिए एक ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाएंगे। अंतरराष्ट्रीय संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच भी यह स्वीकार करने लगी है कि अब महिलाओं की दशा में सकारात्मक बदलाव आ रहे हंै। अगर हम महिलाओं द्वारा रियाद की सड़क पर की गई ड्राइविंग के मसले की ओर लौटें तो पाते हैं कि 1990 में जब महिलाओं ने ऐसा ही कदम उठाया था, तब सरकार ने उन सभी के खिलाफ बदले की कार्रवाई की थी। इसमें सहभागी महिलाओं को नौकरी से निकाल दिया गया था। उनके पुरुष रिश्तेदारों पर भी कार्रवाई की गई थी। इस बार सऊदी हुकूमत की प्रतिक्रिया काफी सौम्य रही है। शायद उसे इस बात का भी डर है कि महिलाओं पर कोई भी सख्त कार्रवाई कहीं ट्यूनीशिया और मिस्र की तरह समूची जनता को ही आंदोलन के लिए तैयार न कर दे।


अंजलि सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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