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निर्गुट सम्मेलन की सार्थकता

जागरण मेहमान कोना
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आज बहुध्रुवीय दुनिया में जहां सबके हित एक दूसरे से टकराते हों, ऐसे में गुट निरपेक्षता की बात करना ही बेमानी है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे भारत में तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की बातें। वैश्विक गांव में तब्दील दुनिया की विदेश नीतियां आर्थिक हितों से ज्यादा प्रभावित होती दिखती हैं। मंदी के दुनियावी मातम के बीच तेहरान में गुट निरपेक्ष आंदोलन (नैम) के दो दिवसीय 16वें शिखर सम्मेलन में तमाशा सरीखी यही कहानी हर बार की तरह दोहराई गई। यहां जुटे नेता जब सीरियाई संकट के मसले पर विचार कर रहे थे, तब उसी देश के शहर अलेप्पो और होम्स में सेना नागरिकों पर बम बरसा रही थी। मेजबान देश ईरान के राष्ट्रपति मोहम्मद अहमदीनेजाद खुद अपनी पीठ थपथपा चुके हैं। ईरान इस आयोजन को अमेरिका और उसके सहयोगी पश्चिमी देशों के समक्ष अपनी ताकत के रूप में पेश करने में सफल रहा है। देश के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह खामनेई ने तो सार्वजनिक मंच से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का मखौल उड़ाकर यह घोषणा कर डाली कि इस संस्था की उपयोगिता खत्म हो चुकी है। जबकि खुद संगठन का अस्तित्व अब हाशिये पर पहुंच चुका है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 120 सदस्य देशों वाले इस संगठन के तेहरान सम्मेलन में महज 50 सदस्य देश ही शिरकत करने पहुंचे। इनमें से भी केवल 30 देशों के राष्ट्राध्यक्ष ही शामिल हैं। सम्मेलन में सीरिया में विदेशी हस्तक्षेप को नकार दिया गया। कूटनीतिक स्तर पर यह विदेश नीति कितनी सही होगी, यह तो समय बताएगा। लेकिन पिछले 17 महीनों के दौरान सीरिया में तकरीबन हजारों लोगों की हत्या और लाखों लोगों के पलायन का दोषी किसे ठहरा जाएगा? क्या नैम के सदस्य देश सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद अपनी सत्ता के दामन पर लगे खून के दाग को धुल पाएंगे? जाहिर है, नहीं। ऐसे में सीरियाई नागरिकों को नरसंहार से बचाने की जिम्मेदारी किसकी है? संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं भी इस मामले में किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी हैं।


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संयुक्त राष्ट्र के नवनियुक्त दूत लखदर ब्राहिमी ने तो कूटनीति के जरिये सीरियाई संकट के समाधान के प्रयास को ही बेमानी बता डाला। ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर भी दुनिया के तमाम देशों में मतभेद हैं। दुनिया युद्ध के मुहाने पर बैठी है। आतंकवाद खुद इंसानियत के खिलाफ युद्ध की शक्ल अख्तियार कर चुका है। भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान समेत पश्चिम के तमाम देश भी आतंकवाद से जूझ रहे हैं। फिर भी मकसद विहीन इस आंदोलन ने जैसे-तैसे अपनी उम्र के 50 साल पूरे किए। नाम का नैम बहुध्रुवीय विश्व में नैम का अस्तित्व खतरे में है और वजह हैं, इसके पैरोकार। सबसे अहम बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के तकरीबन दो तिहाई देश इसके सदस्य हैं और दुनिया की तकरीबन 55 फीसद आबादी नैम देशों में बसती है। मगर अफसोस कि हर तीन साल पर सिवाय सामूहिक रुदन के इनकी आवाजें भूमंडलीकरण के साउंड प्रूफ महल में दम तोड़ जाती हैं। पूंजीवादी ताकतें ऐसे तमाम सम्मेलनों के लिए बेसुरा राग अलापने लगती हैं। जैसा कि अमेरिका में राष्ट्रपति पद के रिपब्लिकन उम्मीदवार मिट रोमनी ने भी भारत को एक तरह से चेतावनी दे ही डाली कि वह ईरान पर अपनी निर्भरता कम कर दे। वास्तव में इस आंदोलन की जरूरत तो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया के बदलते समीकरण के दौर में ही महसूस की जाने लगी थी। कभी न डूबने वाला ब्रिटिश राज का सूरज तब अस्त हो चला था। अब यह सूरज वाशिंगटन में निकल रहा था। दुनिया पूंजीवाद और समाजवाद के खेमे में बंट रही थी। शीतकालीन युद्ध के दौर में पूंजीवादी खेमे का नेतृत्व जहां अमेरिका के पास था तो वहीं समाजवाद का नेतृत्व तबका सोवियत संघ कर रहा था। वहीं कुछ नव-आजाद देश ऐसे भी थे, जो ऐसी खेमेबंदी में विश्वास नहीं करते थे। वे सक्रिय तटस्थता की नीति में भरोसा करते थे। ऐसे ही गुटनिरपेक्ष देशों को एक मंच पर साथ लाने की पृष्ठभूमि पांच देशों के नेताओं ने बनाई थी।


भारत, इंडोनेशिया, घाना, मिस्त्र और उस समय के युगोस्लाविया ऐसे ही देशों में से एक थे। दरअसल, यूगोस्लाविया के तबके राष्ट्रपति टीटो ने तीसरी दुनिया के देशों के लिए ऐसे संगठन का सपना देखा, जो किसी भी देश का अनुयायी न होकर अपने लिए संप्रभुता, अखंडता और सुरक्षा को बरकरार रख सके। इस आंदोलन द्वारा जारी 1979 के हवाना घोषणा पत्र में क्यूबा के तत्कालीन राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने भी यही बात दोहराई थी। साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और नस्लवादी खतरों से निपटने के लिए इस सपने को साकार करने में उनका साथ दिया भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू, मिस्त्र के गमाल नासिर, इंडोनेशिया के सुकर्णो और घाना के क्वामे क्रूमाह ने। टीटो की अध्यक्षता में 1961 में नैम की पहली बैठक बेलग्रेड में संपन्न हुई। ठोस प्रयासों की जरूरत नैम को बदली हुई परिस्थितियों में जल्द ही उसे नया अवतार लेना होगा, जिससे इसकी प्रासंगिकता बनी रहे। नैम मौजूदा चुनौतियों मसलन आतंकवाद के मसले पर साझा तंत्र विकसित करने, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का विस्तार, ग्लोबल वॉर्मिग के लिए सार्थक कदम उठाने, मादक पदार्थो की तस्करी रोकने, परमाणु अप्रसार और विकासशील तथा निर्धन देशों में विकास जैसे अहम मुद्दों को लेकर विकसित देशों पर दबाव बना सकने में सक्षम है। इसकी वजह यह है कि ये देश संयुक्त राष्ट्र संघ के भी सदस्य हैं।


मगर अफसोस कि इस समय नैम के बड़े देश जैसे भारत, ब्राजील, पाकिस्तान इसे सक्षम नेतृत्व प्रदान करने में असफल रहे हैं। जहां प्राकृतिक संसाधनों (स्पेक्ट्रम, कोयला) के घोटाले में फंसी भारत सरकार के प्रधानमंत्री पर अपनी कुर्सी छिन जाने का खतरा मंडरा रहा है, वहीं पाकिस्तान में अस्थिर लोकतंत्र ने देश की अर्थव्यवस्था को चिंताजनक स्थिति में पहुंचा दिया है। यही नहीं, एशिया के ये इलाके आतंकवाद की आग में झुलस रहे हैं। ऐसे में इस आंदोलन की प्रासंगिकता और भी अहम हो जाती है। एक समय संगठन को भंग करने की वकालत करने वाले मिस्त्र के मुखिया मुहम्मद मुर्सी ने तो इसे आज की जरूरत बताया है। बशर्ते इसके लिए ठोस और सार्थक प्रयास किए जाएं। शीतकालीन दौर में उपजे इस आंदोलन पर पुनर्विचार करने की जरूरत है, ताकि इसे पुनर्जीवन दिया जा सके। इसके लिए इब्सा (इंडिया, ब्राजील, साउथ अफ्रीका) देशों को आगे आना होगा। यही नहीं, वर्तमान में आर्थिक मंदी से जूझ रहे नैम के सदस्य देश अपनी आर्थिक गतिविधियों को साझा कर दुनिया के समक्ष विकास की नई मिसाल पैदा कर सकते हैं। संगठन के पर्यवेक्षक देश चीन ने भी वैश्विक आर्थिक सुधार को आगे बढ़ाने की वकालत की है। इससे विकासशील देशों और नवोदित बाजार वाले देशों के प्रतिनिधित्व और अधिकार को बढ़ाने में सहूलियत होगी। भारत भी भविष्य में अपनी भारत-ईरान गैस पाइप लाइन परियोजना के लिए नैम के जरिये फायदा उठा सकता है। प्राचीन रेशम मार्ग (मध्य एशिया से गुजरने वाला रास्ता) को दोबारा विकसित कर पश्चिमी देशों पर निर्भरता कम की जा सकती है। तेल एवं गैस जैसे प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध नैम के देश भी यूरो देशों की तर्ज पर अपनी अलग मुद्रा चला सकते हैं। विकास के लिए साझी अर्थव्यवस्था खड़ी कर सकते हैं, मगर इन सबके लिए ठोस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। वेनेजुएला में 2015 में होने वाले अगले शिखर सम्मेलन तक देशों को इसके लिए पहल करनी ही होगी। वरना, सम्मेलन के महाभोज के लिए सदस्य देशों को तैयार रहना होगा।


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दिनेश मिश्र हैं


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