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केंद्रीय मंत्रिमंडल ने गरीबों को सस्ते अनाज का कानूनी अधिकार दिलाने के मकसद से खाद्य सुरक्षा विधेयक को मंजूरी देकर एक अच्छा काम कर दिया है। संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की इस मंशापूर्ति के चलते अब देश की 67 फीसद आबादी को कानूनी तौर पर तय सस्ती दर से खाद्य सुरक्षा का अधिकार मिल जाएगा। अब कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह इस महत्वाकांक्षी विधेयक को इसी लोकसभा सत्र में पारित कराकर अमल में लाए, क्योंकि मनमोहन सिंह सरकार की पृष्ठभूमि में पिछला चुनाव जीतने के मुख्य कारणों में मनरेगा और किसानों की 60 हजार करोड़ की कर्ज माफी रही थी। भ्रष्टाचार के जटिल जंजाल में उलझी कांग्रेस के लिए यह उपाय कारगर चुनावी हथियार साबित हो सकता है। बशर्ते इसका अमल ईमानदारी से हो। संप्रग घटक दलों के नेता और योजना आयोग इस महत्वपूर्ण योजना को इसलिए टालना चाहते थे, जिससे सरकार को अनाज की उपलब्धता और सब्सिडी खर्च 27,663 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार उठाना न पडे़। मंदी के घटाटोप के चलते गरीबों को दी जाने वाली इस छूट को वित्त मंत्री पी. चिदंबरम भी राजकोषीय घाटे का आधार बन जाने का बड़ा कारण जता रहे थे। पिछले आम चुनावी घोषणा-पत्र में कांग्रेस ने सभी गरीबों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने की गारंटी दी थी। इस वादे पर अमल के लिए सोनिया गांधी की अध्यक्षता में काम कर रही राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत देश की करीब 75 प्रतिशत गरीब जनता को सस्ता अनाज मुहैया कराने की सिफारिश केंद्रीय मंत्रिमंडल से की थी।
पहले कयास लगाए जा रहे थे कि यह सुझाव अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और कृषि मंत्री शरद पवार के गले नहीं उतर रहा था। इसीलिए नहले पर दहला जड़ते हुए प्रधानमंत्री ने खुद की ही अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति को एनएसी के सुझाव पर सुझाव देने के लिए आगे कर दिया था। सोनिया गांधी की पहल विशेषज्ञ समिति के प्रमुख कर्ताधर्ता सी रंगराजन ने एनएसी के प्रस्ताव को ठुकराते हुए दो टूक सलाह दी कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा केवल गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे लोगों तक सीमित रहनी चाहिए। इसे बेवजह ज्यादा विस्तार दिया गया तो सरकार पर आर्थिक संकट गहराएगा। रंगराजन का तर्क था कि केवल जरूरतमंद परिवारों को दो रुपये किलो के भाव पर गेंहू, तीन रुपये किलो पर चावल और एक रुपये किलो की दर से मोटा अनाज खरीदने का अधिकार दिया जाए। बाकी आबादी के लिए सस्ते कानून की योजना का क्रियान्वयन सरकारी आदेश के तहत सुरक्षित रखा जाए। लेकिन सोनिया गांधी खाद्य सुरक्षा विधेयक के जरिये 2014 में होने वाले आम चुनाव में राजनीतिक मकसदों को भुनाना चाहती हैं, जबकि वैश्विक कॉरपोरेट जगत के दबाव में काम करने वाले मनमोहन सिंह, शरद पवार और अहलूवालिया की इच्छा थी कि आर्थिक सुधार न केवल जारी रहें, बल्कि इन्हें विभिन्न छूटों, कर कटौतियों और ऋण-मुक्तियों की सौगातें देकर प्रोत्साहित किया जाता रहे। इस नजरिये से इस मुददे को फिलहाल टालने के लिए बड़ी साफगोई से रंगराजन ने आर्थिक आधार पर गरीबों की पहचान की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालकर विधेयक को लटकाने का काम कर दिया था। किंतु सोनिया गांधी ने अपनी इस स्वप्निल परियोजना को पलीता लगने से बचा लिया। गोया, अब राजनीति और अर्थशास्त्र के द्वंद्व पर विराम लग गया है और उम्मीद है कि इसी चालू सत्र में यह विधेयक पारित होकर कानूनी दर्जा प्राप्त कर लेगा। इस द्वंद्व का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने तो देश की लगभग 75 फीसद आबादी को सस्ते राशन का पात्र मानकर उन्हें दो रुपये प्रति किलो की दर से गेहूं और तीन रुपये प्रति किलो की दर से चावल प्रति परिवार 35 किलो देने का प्रस्ताव दिया था, जबकि आर्थिक सलाहकार परिषद के सी रंगराजन ने अपनी विशेष रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि केवल वास्तविक जरूरत मंदों को अनाज मुहैया कराया जाए। इस सिफारिश के दायरे में 46 फीसद ग्रामीण आबादी और 28 फीसद शहरी आबादी आ रही थी। समिति का दावा था कि उसने गरीबों के साथ कुछ सीमांत परिवारों को भी प्रस्तावित कानून के भीतर समेटने की कोशिश की है। सीमांत परिवारों के शामिल होने पर 10 फीसद और गरीब विधेयक का हिस्सा बनाए जा सकते थे, लेकिन इसके ऊपर के लोगों को सस्ता अनाज देना रंगराजन न केवल अव्यावहारिक मानते थे, बल्कि राष्ट्र की अन्य कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए जोखिम भी मानकर चल रहे थे। विधेयक में बहुत कुछ है खास अब खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे के अनुसार इसके पहले चरण के तहत प्राथमिकता और सामान्य परिवारों को मिलाकर कुल आबादी के 67 फीसद हिस्से को छूट वाला अनाज मिलेगा। यह हक करीब 80 करोड़ लोगों को मिलेगा। इनमें 2.43 करोड़ अति गरीब परिवार होंगे, जिन्हें 35 किलो प्रतिमाह अनाज देने का प्रावधान है। जबकि गरीबी रेखा से ऊपर बाकी लोगों को प्रतिमाह 15 किलो अनाज मिलेगा। इसके लिए 612.30 लाख टन अतिरिक्त अनाज की जरूरत पड़ेगी। इस विधेयक में बेसहारा और बेघर, भुखमरी और आपदा प्रभावित लोगों के लिए भी राशन उपलब्ध कराने का प्रावधान है। साथ ही इसमें गरीब गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं और बच्चों के लिए पौष्टिक आहार की व्यवस्था भी है। हालांकि इतनी बड़ी आबादी को सस्ता अनाज देने के अधिकार में शामिल करने से यह सवाल भी खड़ा होता है कि मनमोहन सिंह सरकार का विकास न तो समावेशी रहा और न ही अंतिम तबके तक पहुंचा। गरीबी हटाने के जितने भी उपाय किए गए, उनके सार्थक नतीजे नहीं निकले। इसकी तस्दीक इस बात से होती है कि देश के 80 करोड़ लोगों को सस्ता अनाज मुहैया कराना पड़ रहा है। इनमें से 21 फीसद लोग कुपोषण के शिकार हैं और पांच साल से कम उम्र के 44 फीसद बच्चों का वजन औसत वजन से कम है। लिहाजा, इनमें से सात फीसद बच्चों की मौत पांच साल के भीतर हो जाती है। खाद्य सुरक्षा विधेयक के लागू होने के बाद 612.30 लाख टन अनाज की जरूरत होगी, जबकि वर्तमान हालात में समर्थन मूल्य के जरिये सरकार 5 करोड़ 76 लाख टन अनाज ही खरीद पाती है। यही नहीं, 67 फीसद गरीबों को सस्ता अनाज देने पर अब छूट (सब्सिडी) का आंकड़ा 83 हजार करोड़ रुपये पर जा अटकेगा। रंगराजन इसी छूट को कल्याणकारी योजनाओं के प्रभावित होने का आधार मानकर चल रहे थे। जहां तक 83 हजार करोड़ की छूट राशि का सवाल है तो यह उस 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की राशि एक लाख 76 हजार करोड़ से बहुत कम है, जिसे एक झटके में ही चुनिंदा नेताओं, नौकरशाहों और ठेकेदारों के गठजोड़ ने हड़प कर विदेशी बैंकों में जमा करा दिया था। कोयला, राष्ट्रमंडल खेलों और उत्तर प्रदेश में हुए अनाज घोटाले की तुलना में 83 हजार करोड़ धनराशि की गरीबों के लिए छूट के कोई मायने नहीं हैं।
यदि प्रति वर्ष एक निश्चित धनराशि गरीबों के भोजन की जरूरत बनेगी तो उन भ्रष्ट योजनाकारों को भी आसमानी-सुलतानी योजनाएं बनाने की जरूरत नहीं रह जाएगी, जो केवल कागजी होती हैं। भंडारण बड़ी समस्या नहीं यह सही है कि अगर अनाज ज्यादा खरीदा जाएगा तो उसके भंडारण की भी अतिरिक्त व्यवस्था को अंजाम देना होगा, क्योंकि उचित व्यवस्था की कमी के चलते बीते साल हमारे गोदामों में करीब 170 लाख टन गेहूं खराब हो गया था। यह भारतीय खाद्य निगम के कुल जमा गेहूं का एक तिहाई हिस्सा था। इस अनाज से एक साल तक दो करोड़ लोगों को भरपेट भोजन कराया जा सकता था, लेकिन यह अनाज केवल भंडारों के अभाव में खराब होने की बनिस्पत भंडारण में बरती गई लापरवाही के चलते खराब हुआ था। उस दौरान कुछ पुख्ता जानकारियां ऐसी भी आई थीं कि पंजाब में भारतीय खाद्य निगम ने कुछ गोदाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किराये पर भी उठा दिए थे। इन कारणों से कंपनियों का माल तो सुरक्षित रहा, लेकिन गरीबों का निवाला सड़ता रहा। हमारी राज्य सरकारें भी आवंटित कोटा वक्त पर नहीं उठातीं, क्योंकि पीडीएस के अनाज का ढुलाई खर्च उन्हें उठाना होता है। उच्चतम न्यायालय भी केंद्र सरकार को भंडारण और वितरण के ठोस इंतजाम करने की हिदायत पहले ही दे चुका है। दरअसल, अब सरकार को भंडारण के इंतजाम पंचायत स्तर पर करने की जरूरत है। यदि ऐसा होता है तो अनाज का दोतरफा ढुलाई खर्च तो बचेगा ही, इस प्रक्रिया में अनाज का जो छीजन होता है, उससे भी निजात मिलेगी। लेकिन नौकरशाही ऐसा करने नहीं देगी, क्योंकि ढुलाई और छीजन दोनों ही स्थितियों में उसकी जेबें गरम होती हैं। वैसे पंचायत स्तर पर ऐसे भवन उपलब्ध हैं, जिनमें सौ-सौ, दो-दो सौ क्विंटल अनाज रखा जा सकता है। यह सुविधा ग्राम स्तर पर दी जाती है तो इससे मिलने वाले किराये से ग्रामीणों की माली हालत में भी इजाफा होगा और सरकार का परिवहन खर्च भी बचेगा। अनाज का छीजन भी नहीं होगा। बहरहाल, खाद्य सुरक्षा विधेयक का जो प्रारूप सामने लाया गया है, उसकी गरीबों के लिए सार्थकता है। इसे जल्द लोकसभा में पारित कराकर अमल में लाने की जरूरत है।
इस आलेख के लेखक प्रमोद भार्गव हैं
Tags: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गरीबों के भोजन, खाद्य सुरक्षा विधेयक
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