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सहमति की उम्र का सवाल

जागरण मेहमान कोना
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सपनों और संभावनाओं से भरी एक युवा लड़की के सामूहिक दुष्कर्म और फिर उसकी मौत के दंश से अभी उबर भी न सके थे कि देश में बहस यौन संबंधों में सहमति की उम्र तक सिमट गई। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। खासतौर से इसलिए भी कि उस अमानवीय अपराध और स्ति्रयों की सुरक्षा के सरकारी दावों के बावजूद दुष्कर्म का सिलसिला खत्म नहीं हो रहा। फिर दिलचस्प बात यह है कि यौन संबंधों में सहमति की उम्र को लेकर हो रही इस बहस में संस्कृति, समाज, नैतिकता, धर्म और परिवार सब कुछ है। बस, वैयक्तिक यौनिकता का मूल मुद्दा बिल्कुल गायब है। मतलब यह कि जिन दो व्यक्तियों के बीच सहमति का सवाल है, उनकी अपने शरीर और यौनिकता पर खुदमुख्तारी को छोड़ सबकुछ बहस में है। इस नजरिये से देखें तो इसी मुद्दे पर ऐसी ही बहस आज से करीब 150 साल पहले औपनिवेशिक भारत में भी हुई थी। बेशक तब की बहस किसी सामूहिक दुष्कर्म की घटना को लेकर नहीं, बल्कि बेमेल विवाहों में यौन संबंधों के दौरान बालिका वधुओं की मौत को लेकर शुरू हुई थी। इस तरह वर्ष 1860 में कानून बनाकर यौन सहमति की न्यूनतम उम्र 10 वर्ष निर्धारित कर दी गई थी। यह बात और है कि बालिका बधुओं की मौत का सिलसिला रुका नहीं।


इसके कुछ साल बाद 1880 में रुख्माबाई नाम की लड़की का मामला चर्चा में आया। रुख्माबाई का बचपन में ही विवाह कर दिया गया था। जब वह बालिग हुई तो उसने पति के घर जाने से इन्कार कर दिया। इसी के साथ इस मामले ने बहस को स्त्री की यौन सार्वभौमिकता की नारीवादी समझ तक पहुंचा दिया था। हालांकि उस दौर के नारीवाद के पास यह शब्द नहीं था। इसी तरह 1889 में बालिका वधू फूलमनी की यौन संबंधों के कारण हुई मौत इस बहस को परंपराओं से सीधी मुठभेड़ तक ले आई थी। बेशक, उस बहस में भी राष्ट्रवादी संघर्ष में प्रबुद्ध सामंती सोच वाली पितृसत्तात्मक ताकतें भारतीय परंपरा और धर्म के तर्को का इस्तेमाल कर यौन सहमति की उम्र के 10 से बढ़ाकर 12 साल किए जाने का तीखा विरोध कर रही थीं। लेकिन स्त्री यौनिकता के नियंत्रण की कोशिश कर रही पितृसत्तात्मक ताकतों के खिलाफ यौन सार्वभौमिकता तक जाने वाले स्त्री अधिकारों के बीच वह संघर्ष का दौर था। उस दौर से बहुत आगे आ चुके इस समाज में इस बहस को कायदे से यौनिक स्वतंत्रता और नागरिकता से हासिल होने वाले मूल अधिकारों से जुड़ना चाहिए था। पर इसके ठीक उलट यह बहस सहमति की उम्र घटाने से परिवारों के टूट जाने जैसे कयासों, इससे होने वाले नैतिक क्षरण जैसे धार्मिक तर्को से लेकर खाप पंचायतों जैसी संविधानेतर संस्थाओं के नैतिक पुलिस बनकर इसका विरोध करने तक सिमट कर रह गई है। यहां तक कि यह तथ्य भी है कि यौन सहमति की उम्र घटाई नहीं जा रही थी, बल्कि 1983 से ही वह 16 साल ही थी। यह भी इस बहस से गायब है। लिहाजा, सवाल यह बनता है कि सहमति की उम्र किन तर्को और तथ्यों के आधार पर तय की जानी चाहिए और इसे कितना होना चाहिए। जबकि दुनिया के तमाम देशों में यह उम्र 13 से लेकर 18 वर्ष के बीच निर्धारित है। इस सवाल का जवाब सामाजिक विकास के सूचकांकों और समाज में किशोरों की स्थिति के अंतर्सबंधों में छिपा है। अगर वह अपनी मर्जी से और बिना किसी भय के संबंध बना सकते हैं, गर्भ ठहर जाने जैसी आपात स्थिति में बिना किसी सामाजिक विरोध के स्वास्थ्य सेवाओं तक पंहुच सकते हैं, परिवार के विरोध की स्थिति में सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की शरण ले सकते हैं तो फिर इसे 13 साल भी कर देने पर कोई खास दिक्कत नहीं है। लेकिन दिक्कत यही है कि समाज की स्थिति ऐसी नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच की कौन कहे, जब कुपोषण का आलम यह है कि प्रधानमंत्री को यह समस्या राष्ट्रीय शर्म लगती है और राष्ट्रपति को सबसे बड़ा अपमान तो किशोरों की स्वास्थ्य स्थिति का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। साफ है कि ऐसी स्थिति में सहमति की उम्र निर्धारित करने में खासी सतर्कता बरतने की जरूरत है। इसके उलटे दूसरा पहलू यह भी है कि क्या यौन हिंसा से निपटने में लगातार विफल हो रही सरकार और समाज को सहमति से बने संबंधों का अपराधीकरण करने की अनुमति दी जा सकती है? याद करें कि हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जहां सर्वोच्च न्यायालय तक दस्तक देकर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले प्रेमी युगल मनोज और बबली की पुलिस की उपस्थिति में निर्मम तरीके से हत्या कर दी जाती है और हरियाणा का राजनीतिक नेतृत्व परंपरा और धर्म के नाम पर हत्यारों के साथ खड़ा मिलता है। संबंधों की उम्र 16 से बढ़ाकर 18 करना कहीं ऐसी बर्बर संस्थाओं को और प्रश्रय देगा, इस बात में कोई शक नहीं है। सहमति की उम्र बढ़ाना केवल मनोज-बबली जैसे हत्याकांडों के लिए बदनाम प्रदेशों के लिए ही गलत साबित नहीं होगा, बल्कि कम से कम नगरीय भारत के सार्वजनिक क्षेत्र में बढ़ती स्त्री उपस्थिति की वजह से किशोर-किशोरियों के बीच बढ़ते संवाद के खिलाफ भी खड़ा होगा। हमारा समाज यौनिकता से खारिज समाज नहीं है। वास्तव में कोई भी समाज नहीं हो सकता। फिर आज के किशोरों के लिए टेलीविजन से लेकर फिल्मों तक यौन उद्दीपकों की कमी भी नहीं है। ऐसे में सहमति से बने संबंधों का अपराधीकरण कर किशोर को दुष्कर्मी बनाकर हम समाज को कहां ले जाएंगे, यह सोचने की बात है।


इन संबंधों के अपराधीकरण में एक और बड़ा नुक्ता फंसता है। दिल्ली सामूहिक दुष्कर्म मामला याद करें तो इस बर्बर कांड में शामिल किशोर को भी बाल अदालत में ही ले जाया गया है और यही सही भी है। अब इसके बरअक्स सहमति से बने संबंधों के आधार पर दुष्कर्मी मान लिए जाने वाले किशोर के बारे में सोचें तो बात साफ हो जाएगी। यहां यह साफ कर देना उचित होगा कि मैं सिर्फ और सिर्फ सहमति से बने संबंधों की बात कर रहा हूं। किसी भी प्रकार के दबाव से बनाए गए संबंधों की नहीं। इन दबावों में शादी के झूठे वादे कर हासिल की गई सहमति भी शामिल है और मैं मानता हूं कि उसे अभी की तरह ही अपराधी की उम्र देखे बिना दुष्कर्म ही माना जाना चाहिए। केंद्र और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है विधि के शासन पर आधारित कानून व्यवस्था बनाए रखना और उसे बलात तोड़ने वालों को सजा दिलवाना। लेकिन इसमें वह अक्सर बुरी तरह से असफल होती दिखती हैं। उसका काम निरअपराधी दो युवाओं की नैतिक पहरेदारी करना नहीं है। इसीलिए सहमति की उम्र 16 साल ही रहनी चाहिए, जैसी 1983 से थी। सरकार को भी इसमें छेड़छाड़ करने के बजाय आए दिन स्ति्रयों के खिलाफ हो रही यौन हिंसा पर काबू करने की कवायद करनी चाहिए। यही उसका असली काम भी है।

इस आलेख के लेखक अविनाश पांडेय समर हैं

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