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इन दिनों उत्तर प्रदेश में साहित्यिक पुरस्कारों की बाढ़-सी आई है। मायावती के शासनकाल के दौरान रुके या रोके गए साहित्यिक पुरस्कार अर्पित किए जा रहे हैं। पुरस्कार समारोह में युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की उपस्थिति से उम्मीद भी जगती है कि अब उत्तर प्रदेश की लंबी समृद्ध साहित्यिक विरासत को फिर से अहमियत मिलेगी। साहित्य का रसास्वादन दोबारा आधिकारिक रूप से किया जाएगा। मुख्यमंत्री ने पिछले शासनकाल में पुरस्कारों के बंद होने को दुर्भाग्यपूर्ण करार देते हुए अगले साल से सम्मान राशि बढ़ाने का भी ऐलान किया। अखिलेश यादव ने यह भी कहा कि साहित्य शाश्वत होता है और वह समाज को रास्ता भी दिखाता है। यह सब ठीक था, उम्मीद भी जगा गया, लेकिन इन पुरस्कारों से कई सवाल भी खड़े हो गए हैं। छह साल के लंबे अंतराल के बाद 15 लोगों को यश भारती सम्मान दिया गया। इस बार का यश भारती पुरस्कार हंस के यशस्वी संपादक राजेंद्र यादव को दिया गया है और सम्मान स्वरूप उन्हें 11 लाख रुपये भी मिलेंगे। राजेंद्र यादव आमतौर पर पुरस्कार लिया नहीं करते हैं, लेकिन लखटकिया पुरस्कारों से उन्हें परहेज भी नहीं है। उनका तर्क होता है कि पुरस्कार राशि को वह हंस में लगा देते हैं और हंस पत्रिका को चलाने के लिए वह कहीं से भी राशि ले सकते हैं। तमाम विरोधों के बावजूद भाजपा शासित राज्यों के विज्ञापन तो वह छापते ही रहते हैं। यह अवांतर प्रसंग है, लेकिन उनके अलावा इस सूची में कुछ लेखक ऐसे हैं, जिनका साहित्य जगत से परिचय होना अभी बाकी है। यह उसी तरह है जब साहित्य अकादमी की जनरल काउंसिल में प्रोफेसरों के कॉकस एक दूसरे को चुनते हैं जिनका साहित्य में कोई योगदान नहीं है।
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यश भारती पाने वालों में हिंदी भाषी क्षेत्र के राजेंद्र यादव के अलावा मस्तराम कपूर और सरिता शर्मा शामिल हैं। हिंदी पुरस्कारों की प्रतिष्ठा का सवाल बात हिंदी में पुरस्कारों की हो रही थी। हिंदी में पुरस्कारों की महत्ता और प्रतिष्ठा लगातार कम होती जा रही है। भारतीय भाषाओं में सबसे प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार माना जाता था, लेकिन पिछले एक दशक से जिस तरह इस प्रतिष्ठित पुरस्कार की बंदरबांट शुरू हुई है उससे अकादमी पुरस्कारों की साख पर भी बट्टा लगा है। वर्ष 2001 से 2010 तक की साहित्य अकादमी पुरस्कारों के लिए बनाई गई पुस्तकों की आधार सूची पर नजर डालने से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। वर्ष 2003 में जब कमलेश्वर को उनके उपन्यास कितने पाकिस्तान के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था तो उस वर्ष की आधार सूची में 31 लेखकों के नाम थे। यह सूची मृदुला गर्ग ने तैयार की थी, जिसमें तेजिंदर, गौरीनाथ, हरि भटनागर, संजना कौल और जयनंदन आदि नाम शामिल थे। तब अकादमी पर यह आरोप लगा था कि कमलेश्वर का नाम पहले से तय था। कई अखबारों ने तो उस वक्त पुरस्कारों के ऐलान के पहले ही उनके नाम का खुलासा भी कर दिया था। 2004 में तो और भी गंभीर आरोप लगे थे। पुरस्कार मिला था वरिष्ठ और चर्चित कवि वीरेन डंगवाल को उनके कविता संग्रह दुष्चक्र में सृष्टा के लिए। उस वक्त के संयोजक थे उपन्यासकार गिरिराज किशोर और आधार सूची तैयार की थी कहानीकार प्रियंवद ने। हद तो तब हो गई थी जब निर्णायक मंडल के तीन सदस्यों में से दो कमलेश्वर और श्रीलाल शुक्ल बैठक में उपस्थित ही नहीं हो सके थे। अपनी टिप्पणी में निर्णायक मंडल के तीसरे सदस्य से रा यात्री ने लिखा था, दुष्चक्र में सृष्टा काव्य कृति को निर्णायक मंडल के हम सभी सदस्य एक समान प्रथम वरीयता देते हैं और साहित्य अकादमी के वर्ष 2004 के पुरस्कार के लिए सहर्ष प्रस्तुत करते हैं। संस्तुति पत्र पर सिर्फ उनके ही दस्तखत हैं। उसी जगह हिंदी भाषा के तत्कालीन संयोजक गिरिराज किशोर ने लिखा, श्री श्रीलाल शुक्ल और कमलेश्वर उपस्थित नहीं हो सके। उन्होंने अपनी लिखित संस्तुति बंद लिफाफे में भेजी है।
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श्रीलाल जी ने ज्यूरी के उपस्थित सदस्य से रा यात्री से फोन पर लंबी बात कर दुष्चक्र में सृष्टा को 2004 के साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए समर्थन दिया है। हालांकि साहित्य अकादमी के दस्तावेज में श्रीलाल शुक्ल की संस्तुति मौजूद नहीं है। कमलेश्वर का 20 दिसंबर का खत है जो 21 दिसंबर की बैठक के पहले प्राप्त हो गया था। इस तरह की जल्दबाजी ने सवाल भी खड़े किए थे। वीरेन डंगवाल की प्रतिष्ठा और उनके लेखन पर किसी को कोई संदेह नहीं है। इसमें भी दो राय नहीं कि वह साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने की योग्यता भी रखते थे, लेकिन जिस तरह की अफरा-तफरी में उन्हें यह प्रतिष्ठित पुरस्कार देने का ऐलान किया गया उससे उनकी और इस पुरस्कार की विश्वसनीयता संदिग्ध हो गई। कालांतर में अकादमी पुरस्कारों के चयन को लेकर कई गंभीर आरोप लगे। नतीजा यह हुआ कि अकादमी पुरस्कार को लेकर हिंदी जगत में वैसा उत्साह नहीं रहा जो सदी के नौवें दशक में हुआ करता था। अब पहली बार हिंदी भाषा के प्रतिनिधि प्रोफेसर विश्वनाथ तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बने हैं। उन पर यह महती जिम्मेदारी है कि अकादमी पुरस्कारों की विश्वसनीयता और साख बहाल करें। इसके अलावा भी हिंदी में कई पुरस्कार दिए जाते हैं। कुछ पुरस्कार तो ऐसे हैं जो बकायदा लेखकों से एक निश्चित राशि के बैंक ड्राफ्ट के साथ आवेदन मांगते हैं। हिंदी के पुरस्कार पिपासु लेखक बड़ी संख्या में इस तरह के पुरस्कारों के लिए आवेदन भेजते हैं। हिंदी के बहुतायत लेखकों में बगैर काम किए या यों कहे कि हल्का काम करके अथवा कम परिश्रम करके प्रसिद्धि पाने की ललक ऐसे पुरस्कारों को प्राणवायु प्रदान करती है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में कई ऐसे पुरस्कार हैं जिनकी धनराशि तो पांच से दस हजार रुपये तक होती है, लेकिन उनकी आड़ में साहित्य जगत में पुरस्कारों का खेल खेला जाता है। जिस पत्रिका की कोई पहचान नहीं बन पाती है या उसके एक-दो अंक निकले होते हैं। वे भी अपने नाम पर शॉल, श्रीफल देकर साहित्याकारों और लेखकों को उपकृत करते हैं और उसके एवज में जो कुछ भी होता है वह हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठा को धूमिल करता है। इन सवालों के जवाब जरूरी सवाल यह उठता है कि हिंदी के लेखकों में पुरस्कार को लेकर इतनी भूख क्यों है। क्यों वे कुछ हजार रुपये की राशि के पुरस्कारों के लिए साम-दाम-दंड-भेद तक को अपनाने से परहेज नहीं करते हैं? अगर हम विस्तार से इसकी पड़ताल करते हैं तो जो तस्वीर सामने आती है वह बेहद निराशाजनक है। हिंदी के लेखकों में जिस एक प्रवृत्ति का लगातार क्षय हो रहा है वह है मेहनत से दूर भागने का। बगैर व्यापक शोध और कोरी कल्पना के आधार पर यथार्थ लिखने की प्रवृत्ति ने साहित्य का बड़ा नुकसान किया है। विचारधारा वाले साहित्य ने तो नुकसान किया ही, इसके अलावा जो एक और प्रवृत्ति नई पीढ़ी के साहित्यकारों-लेखकों में दिख रही है वह है जल्दबाजी, धैर्य की कमी, कम वक्त में किसी भी कीमत पर सारा आकाश पा लेने की तमन्ना। इसी मानसिकता का लाभ उठाकर साहित्य के कुछ कारोबारी पुरस्कारों का कारोबार करते हैं और लेखकों को अपने जाल में फंसाकर उलझा देते हैं। नवोदित लेखक तो कोंपल की तरह होता है, जिसका विकास क्रम बेहद सावधानी बरतते हुए आगे बढ़ता है। लेकिन, हिंदी के नए लेखक शुरू से ही आसमान पर चढ़ने की तमन्ना पाले बैठे रहते हैं। महत्वाकांक्षा जीवन में आगे बढ़ाती है और हर किसी को महत्वाकांक्षी होना चाहिए, लेकिन उसमें अति के जुड़ने से जो बेचैनी आ जाती है वह एक खतरनाक स्थिति पैदा करती है। फिर पुरस्कार देने वाले इस प्रवृत्ति को बढ़ाकर खतरा और बढ़ा देते हैं। हिंदी के कर्ताधर्ताओं की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे साम-दाम-दंड-भेद अपनाए जाने की इस घड़ी में आगे आएं और छुटपुट पुरस्कारों की पहचान कर उनका बहिष्कार करें, ताकि हिंदी से पुरस्कारों के कारोबार पर रोक लगाई जा सके।
इस आलेख के लेखक अनंत विजय हैं
Tags: culture awards, साहित्य अकादमी दस्तावेज, दस्तावेज, अध्यक्ष, पुरस्कार
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