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सिनेमा पर गैरजरूरी सियासत

जागरण मेहमान कोना
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abhigyan prakashकमल हासन की नई फिल्म से जुड़े विवाद में एक बात मुझे बहुत ही दिलचस्प नजर आती है और वह यह कि यह एक पूर्व फिल्म कलाकार और एक मौजूदा फिल्म कलाकार के बीच की लड़ाई बन गई है। फिल्में समाज का आईना होती हैं और इस आईने के जरिये अपनी बात कहने का और अपना पक्ष रखने की एक रचनात्मक आजादी होती है एक फिल्म बनाने वाले और कलाकार के पास। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता खुद एक फिल्म कलाकार रही हैं और उन्हें यह बात अच्छी तरह पता होगी कि एक कलाकार फिल्मों में एक किरदार निभाता है और उसके बाद फिल्म देखने वाले यह तय करते हैं कि उन्हें वह किरदार पसंद आया या नहीं? रही बात रचनात्मक आजादी की सीमा लांघने की तो उस सीमा रेखा को तय करने का काम सेंसर बोर्ड का है।


सेंसर बोर्ड कमल हासन की फिल्म को अपना सर्टिफिकेट दे चुका है। बाकी की दखलंदाजी का कोई सवाल ही नहीं उठता। फिर सवाल यह है कि मजबूरी क्या थी? जयललिता की यह मजबूरी राजनीतिक थी या व्यावसायिक, यह समझना भी जरूरी है। कमल हासन के उस बयान पर गौर किया जाना चाहिए जिसमें उन्होंने यह कहा कि मैं जयललिता की उस बात का स्वागत करता हूं कि अगर फिल्म के कुछ अंश हटा दिए जाएं तो यह फिल्म वह उस राज्य में रिलीज कर देंगी। मतलब सेंसर बोर्ड से पास हुई फिल्म को और फिल्म बनाने वाले को उस दबाव के आगे झुकना ही पड़ेगा। दूसरी बड़ी बात सेंसर बोर्ड की। फिल्मों को लेकर होने वाले विवाद कोई नई बात नहीं हैं, बल्कि यह बहुत पुराना मसला है। सुप्रीम कोर्ट ने सेंसर बोर्ड को ही फाइनल अथॉरिटी माना है। अब जब सेंसर बोर्ड की ही बात की अनदेखी की जाएगी तो कोई भी फिल्म बनाने वाला आखिर कहां जाएगा। जिन्हें भी किसी फिल्म के किसी अंश से आपत्ति है तो सबसे पहले उन्हें सेंसर बोर्ड का दरवाजा खटखटाना चाहिए कि आखिरकार उसका सर्टिफिकेट उसने क्यों दिया। दुर्भाग्य से यह सब न करके इस बात को एक सियासी बवाल में तब्दील कर दिया गया।


जब इस फिल्म पर इतने बड़े पैमाने पर बहस हो रही है तब यह भी साफ नहीं है कि आखिर वह खासतौर पर क्या हिस्से हैं जिन पर आपत्ति है और जिनको लेकर समाज में एक तरह की प्रतिक्रिया होने का खतरा है। बड़ी बहसों में कभी-कभी ऐसा ही होता है। जानकारी हासिल करने के तमाम तरीके होने की वजह से आज का समय बदल गया है। लोगों के पास बहुत से रास्ते हैं अपनी राह बनाने के। वह राह पूरी तरह से बन भी नहीं पाई कि सब कुछ एक बड़े बवाल में तब्दील हो गया। अब बहस के बाद क्या यह तय करने की जरूरत है कि सेंसर बोर्ड की अहम भूमिका के बावजूद राज्यों को भी अपनी तरह से यह तय करने का अधिकार है कि कोई फिल्म उनके यहां दिखाई जाए या नहीं? सोच कर देखिये कि उसके बाद क्या तस्वीर होगी फिल्मों को लेकर इस देश में? अब बात फिल्म वालों की। यह भी बहुत जरूरी है।


कई बड़े नाम जोरदार तरीके से कमल हासन के समर्थन में आ गए और यह बिल्कुल स्वाभाविक था, क्योंकि उन्हें यह अच्छी तरह से पता है कि वे खुद भी समस्या से जूझते हैं और आगे भी उन्हें जूझना है। इन सब में सलमान खान का बयान मुझे सही लगा। उन्होंने सरल बात कही कि प्रशंसक यह फिल्म देखें और तय करें। आखिर जनता की कसौटी ही किसी फिल्म का या उसकी कहानी का सबसे बड़ा इम्तिहान होता है। सीधी बात है कि फिल्म देखने वाले को अपनी राय बनाने का मौका दीजिए। इतनी जल्दबाजी क्यों? फिल्म बनाने वाले इन बातों को लेकर इसलिए भी चिंतित हैं, क्योंकि आज फिल्मों का पहलू व्यवसाय से जुड़ा है। हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां लगातार अखबारों के जरिये और बड़े-बड़े विज्ञापनों के जरिये यह बताया जाता है कि कैसे कोई फिल्म कुछ ही दिनों में कितनी बड़ी हिट हो गई और सौ करोड़ या दो सौ करोड़ के क्लब में शामिल हो गई।


फिल्म को क्या धमाकेदार शुरुआत मिली, यह एक बड़ा विषय है। फिल्म के जानकार यह कहते हैं कि पहले किसी फिल्म को बड़ी हिट बनाने में वक्त लगता था। अब यह कुछ दिनों और कुछ हफ्ते की बात है। इसलिए कमल हासन के आर्थिक नुकसान की बात समझ में आती है। यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि बहुत लोग यह मानते हैं कि फिल्म को धमाकेदार शुरुआत दिलवाने के लिए और उसे सफल बनाने के लिए लोग उसे विवाद में बांध देते हैं। इसलिए भी यह जरूरी हो जाता है कि किसी फिल्म के अच्छे-खराब होने का निर्धारण दर्शक ही करें। वैसे अगर विवाद की रणनीति वाली थ्योरी को सही मान लें तो भी यह सवाल उठेगा कि अगर फिल्म रिलीज ही नहीं हो पाई तो विवाद उत्पन्न करने का क्या फायदा होगा? पाइरेसी से लड़ रही इंडस्ट्री को अच्छी तरह मालूम है कि गैर सिनेमा के माध्यमों से फिल्म देखने पर प्रोड्यूसर को कुछ नहीं हासिल होने वाला। प्रोड्यूसर का बड़ा नुकसान ही होगा।


मेरी दलील यह है कि विवाद एक हद तक ही काम करेगा वरना अगर उसे जानबूझकर भी रचा गया है (जो कमल हासन के मामले में नहीं नजर आता) तो उसका कोई खास फायदा नहीं होने वाला। एक और जरूरी बात है कि संस्थानों यानी इंस्टीट्यूशन का सम्मान और अहमियत को बरकरार रहना चाहिए। सेंसर बोर्ड ऐसा ही एक संस्थान है। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो हम सूचना की क्रांति के युग में अजीब और नई समस्याओं को झेल रहे होंगे।



लेखक अभिज्ञान प्रकाश वरिष्ठ पत्रकार हैं


Tag:कमल हासन, प्रोड्यूसर, सूचना , फिल्म, सेंसर बोर्ड, जयललिता , तमिलनाडु ,मुख्यमंत्री ,विश्वरूपम,मुस्लिम,Kamal Haasan,Infomation, Film,censor board,jayalalithaa,Tamil Nadu

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