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सुरक्षा और समृद्धि के सूत्र

जागरण मेहमान कोना
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जब मैं पहली बार 1985 में सरकार में शामिल हुआ तो के. सुब्रहमण्यम पहले ही सचिव स्तर के अधिकारी के रूप में काम कर रहे थे। पहली ही मुलाकात में मैंने उन्हें अलग तरह के अधिकारी के रूप में पाया। मेरे देखते-देखते वह एक नौकरशाह से आगे बढ़ते-बढ़ते राष्ट्रीय सुरक्षा के विशेषज्ञ बन गए। नि:संदेह वह जब तक जीवित रहे, राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर सर्वाधिक प्रभावशाली आवाजों में से एक बने रहे। हाल तक राष्ट्रीय सुरक्षा पर हम उस गंभीरता से विचार नहीं करते रहे हैं जितना कि होना चाहिए था। सुरक्षा के हर खतरे को हमने अलग-अलग खांचों में बांट रखा था। पहला खांचा पाकिस्तान है। फिर चीन के साथ युद्ध के बाद खतरे का एक अलग खांचा बना। इससे निपटने के लिए वार्ता, कूटनीति, व्यापार और सीमा पर सुरक्षा बलों की तैनाती का रास्ता अपनाया गया।


पाकिस्तान और चीन के अलावा हमें अपनी सुरक्षा पर कोई और बाहरी खतरा दिखाई ही नहीं दिया। सांप्रदायिक दंगे, आतंकवाद, नक्सलवाद, ड्रग तस्करी और फर्जी नोटों जैसे मुद्दे आंतरिक सुरक्षा के खतरों में गिने गए और इनसे निपटने का जिम्मा गृह मंत्रालय पर छोड़ दिया गया। ऊर्जा एवं खाद्य सुरक्षा और महामारियों को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा माना ही नहीं गया। सुब्रहमण्यम ने सबसे पहले राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरों को संपूर्ण रूप में लेने की बात कही थी। हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उन्हीं की बातें दोहराई थीं। उनके बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने भी कहा कि अब हमें अपनी ऊर्जा, खाद्य एवं तकनीकी सुरक्षा के खतरों को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़कर देखने का समय आ गया है। उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया था कि आंतरिक और वाह्य सुरक्षा के बीच बेहद महीन रेखा है।


आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों के तार भी बाहर से जुड़े हैं। दरअसल, राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा एक के बाद एक अन्य खतरों से जुड़ा है। उदाहरण के लिए आतंकवाद का खतरा हथियारों के विस्तार के खतरे से जुड़ा है। कम गंभीर संघर्षो का सीधा असर सामाजिक ताने-बाने पर पड़ता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मुख्य रूप से तीन स्तंभ हैं। एक, मानव संसाधन, दूसरा विज्ञान एवं तकनीक और तीसरा पैसा। इनमें पैसा सबसे महत्वपूर्ण है। पैसे के बिना हम न तो मानव संसाधन विकसित कर सकते हैं और न ही विज्ञान एवं तकनीक का प्रसार। शिक्षा, शिशु एवं मातृ मृत्यु दर घटाने की चुनौती, महामारी जैसे स्वास्थ्य के मुद्दे मानव संसाधन से जुड़े हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य पर हमारा खर्च जीडीपी का चार प्रतिशत है, जबकि ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और चीन जैसी दूसरी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं इन पर हमसे ज्यादा खर्च कर रही हैं।


यदि हम ऐसी वित्तीय अवस्था प्राप्त कर लें जिसमें हम 12वीं पंचवर्षीय योजना के बाकी चार सालों में एक-एक फीसद भी इस पर ज्यादा खर्च करें तो मानव संसाधन की तस्वीर बदल सकती है। राष्ट्रीय सुरक्षा के किसी भी खतरे से तब तक प्रभावी रूप से नहीं निपटा जा सकता जब तक कि हम विज्ञान और तकनीक को स्कूली स्तर से ही नहीं अपनाते। इसके साथ ही हमें अपनी भौगोलिक, समुद्री और हवाई सीमा के मोर्चे पर और अंतरिक्ष में भी तकनीक का विस्तार करना होगा। पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, चीन और म्यांमार के साथ हमारी लंबी सीमा लगती है, लेकिन इनकी सुरक्षा के लिए बमुश्किल ही किसी तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। 7516 किलोमीटर की समुद्री सीमा पर मुंबई हमले के बाद हमने सुरक्षा के थोड़े-बहुत उपाय किए हैं। हवाई सीमा पर हम सिर्फ वायुसेना पर निर्भर हैं। अंतरिक्ष में हमारे सेटेलाइट ही बहुत कम हैं। जो हैं उनमें भी मुख्य रूप से संचार और मौसम के लिए हैं। हम अंतरिक्ष के सैन्यीकरण की दरकार से किनारा कर रहे हैं। इनके अलावा साइबर खतरे भी हैं। इन सभी से निपटने के लिए हमें तकनीकी अभ्युदय की जरूरत है। अफसोस की बात है कि हम राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े पहलुओं के शोध एवं विकास पर खर्च नहीं कर रहे हैं।


जहां तक सैन्य आधुनिकता का प्रश्न है तो आज भी सब कुछ आधारभूत डिजाइन और विकास के शुरुआती चरण पर अटका हुआ है। प्रमुख युद्धक टैंक अर्जुन 2004 में सेना में शामिल किया गया था और अगला आधुनिक मॉडल अब भी कई साल दूर है। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ है पैसा, जो सीधे देश की विकास दर से जुड़ा है। जिस गति से टैक्स राजस्व गिरता है उसी गति से खर्च में कटौती नहीं की जा सकती। नतीजतन राजस्व और खर्च में अंतर बढ़ जाता है। ऐसे में कर्ज बढ़ता जाता है और राजस्व घाटा भी बढ़ जाता है। विकास दर गिर जाती है। फिर समाज कल्याण की योजनाओं पर खर्च में कटौती की जाती है और अंत में रक्षा खर्च भी घट जाता है। इस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा से निपटने की क्षमता प्रभावित होती है। इसलिए उच्च विकास दर को बनाए रखना जरूरी है। अब चीन को ही लीजिए। वह 1981 से नौ फीसद की विकास दर से बढ़ रहा है, जबकि हम यह दर 2005-11 तक पांच साल तक ही हासिल कर पाए। चीन की ऊंची विकास दर स्वत: ही रक्षा खर्च में बढ़ोतरी में तब्दील हो गई। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक चीन के पास आज 62 अंतर महाद्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइल हैं। चीन के पास छह सबमरीन बैलेस्टिक मिसाइल हैं, जबकि भारत ने अभी एक रूस से खरीदी है और वह भी प्रशिक्षण के लिए है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि सतत उच्च विकास दर राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी है। राष्ट्रीय सुरक्षा का एक और पहलू सामाजिक सौहा‌र्द्र से भी जुड़ा है। यदि उच्च विकास दर से समग्र विकास होगा तो सामाजिक सौहा‌र्द्र भी बढ़ेगा। यदि हम लंबे समय से सतत विकास नहीं कर रहे हैं तो हम हमेशा के लिए अल्पपोषित, अल्पशिक्षित और कम सफल राष्ट्र बन जाएंगे। परिणामत: राष्ट्रीय सुरक्षा को वाह्य एवं आंतरिक दोनों खतरों से निपटने के लिए हमारी क्षमता बुरी तरह प्रभावित होगी।


आज हमारे पास अर्थव्यवस्था के लिहाज से दो तरह के अवसर हैं। दोनों स्थितियां राष्ट्रीय सुरक्षा को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करती हैं। पहली स्थिति भारत को सुरक्षित राष्ट्र बनाती है, जो खुद की रक्षा करने में समर्थ है। दूसरी स्थिति देश पर हर तरह के खतरे आमंत्रित करती है, जिनमें आंतरिक संघर्ष का खतरा भी जुड़ जाता है। पांच हजार वर्ष पुरानी सभ्यता वाले देश को बुद्धिमानी से काम लेना चाहिए। हालिया इतिहास में ऐसे कई देशों के उदाहरण मिल जाएंगे जिन्होंने दृढ़ निश्चय के साथ एक रास्ते पर चलते हुए अपनी सुरक्षा और समृद्धि हासिल की है।



के. सुब्रहमण्यम स्मृति व्याख्यान का संपादित अंश


Tag: अर्थव्यवस्था, चीन , पाकिस्तान , बैलेस्टिक मिसाइल, Economy, China, Pakistan, ballistic missiles

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