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सेना से दूर होते जवान

जागरण मेहमान कोना
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हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रालय की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट आई है, जिसके मुताबिक बीते तीन वषरें में करीब 39 हजार सुरक्षाकर्मी विभिन्न कारणों से नौकरी छोड़ चुके हैं। 2009 से 2011 के बीच केंद्रीय सुरक्षा बलों के कुल 34683 सुरक्षाकर्मियों ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली, जबकि इसी अवधि में निजी कारणों का हवाला देकर 3947 जवानों ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। अगर इन वषरें का विवरण अलग-अलग देखा जाए तो वर्ष 2009 में 12983, वर्ष 2010 में 10875 तथा 2011 में 10825 सुरक्षाकर्मियों ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली। इसी तरह इसी अवधि के दौरान वर्ष 2009 में 1162, वर्ष 2010 में 1487 तथा वर्ष 2011 में 1298 जवानों ने निजी कारणों से त्यागपत्र दिया। स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने वालों में सीमा सुरक्षा बल, बीएसएफ के जवान सबसे आगे हैं। 2009 में 6319, वर्ष 2010 में 5443 तथा वर्ष 2011 में 5877 जवानों ने बीएसएफ से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली है। केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवानों की इस स्थिति का आंकड़ा थोड़ा कम है। इस सेवा से 2009 में 3580, 2010 में 2790 तथा 2011 में 2377 जवानों ने नौकरी छोड़ी। इसी तरह केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआइएसएफ) से वर्ष 2009 में 330, 2010 में 616 तथा 2011 में 446 जवानों ने अपनी सेवा से त्यागपत्र दिया। स्पष्ट है कि केंद्रीय सुरक्षा बलों के जवानों का नौकरी छोड़ने का सिलसिला अनेक प्रकार के सरकारी प्रयासों के बावजूद रुकने का नाम नहीं ले रहा है। यह स्थिति भारत सरकार के लिए एक नई चुनौती के रूप में सामने है।


जवानों के इतनी बड़ी संख्या में नौकरी छोड़ने से सरकार की चिंताएं बढ़ रही हैं। इस संबंध में सरकार ने पिछले कुछ समय से सकारात्मक कदम भी उठा रखे हैं। सुरक्षाकर्मियों के बढ़ते तनाव को देखते हुए सरकार ने इसे कम करने के लिए समुचित आराम एवं छुट्टी देने की नीति पर अमल करना शुरू कर दिया है। इसके अलावा जवानों को अपने पारिवारिक सदस्यों तथा दोस्तों से मिलने व बात करने के लिए बेहतर संचार सुविधा भी मुहैया करवाई जा रही है। इस अलावा गृह मंत्रालय ने योग की कक्षाएं चलवानी शुरू कर दी हैं, जिनसे जवानों को मानसिक तनाव से दूर रखा जा सके, लेकिन इन सतही उपायों के अलावा सरकार को सैनिकों को मिलने वाले वेतन व भत्तों में भी बढ़ोतरी करनी चाहिए।


आज के आर्थिक प्रधान वाले युग में देशभक्ति की भावना का कोई विशेष महत्व नहीं रह गया है और न ही इस भावना से किसी को सशस्त्र बल सेवा में बनाए रखा जा सकता है। वर्तमान में जिस तरह समाज में धन, वैभव एवं ऐश्वर्य को महत्व दिया जा रहा है उसे देखते हुए यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि देश सेवा के नाम पर आज लोग सशस्त्र बल सेवा में बने रहेंगे। अब जरूरत है कि हमारे देश के नीति नियंता व नीति निर्माता गंभीरतापूर्वक विचार करके ऐसी नई योजनाओं का निर्माण करें जिनसे सशस्त्र बल सेवा में आने वालों को आर्थिक व अन्य पहलुओं पर चिंता न करनी पड़े। वर्तमान में सशस्त्र बलों की इस नई चुनौती पर विचार किया जाना आवश्यक हो गया है। ऐसी परिस्थितियों में नवीन पीढ़ी को इस प्रकार की शिक्षा प्रदान की जाए जो उनमें देशभक्ति, त्याग एवं बलिदान की भावना का संचार कर सके। सशस्त्र बलों की सेवा में रहने वालों के परिवार की समस्याओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए तथा सैनिकों के बच्चों की शिक्षा व्यवस्था बेहतर बनाई जानी चाहिए। ऐसा नहीं है कि लोगों में देशभक्ति का जज्बा पूरी तरह समाप्त हो गया है, लेकिन जब जवानों को सशस्त्र बलों के मुकाबले अन्य कंपनियों की सुविधाएं ज्यादा आकर्षक लगेंगी तो स्वाभाविक रूप से वे उधर ही जाना पसंद करेंगे। यह देश की सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है, जिस पर सरकार को गंभीरता से कार्रवाई करनी होगी।


लक्ष्मीशंकर यादव सैन्य विज्ञान विषय के प्राध्यापक हैं


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