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अब दुनिया एक नए जंगल की ओर बढ़ रही है जो हरा-भरा तो है, लेकिन उसमें न तो चिडि़या चहचहाती हैं और न ही शेर की दहाड़ सुनाई पड़ती है। दरअसल, यह जंगल एशिया, अफ्रीका व लातिन अमेरिका के विविधतापूर्ण वनों को काट कर चुनिंदा प्रजाति के पेड़-पौधों के रोपण से बन रहा है ताकि सस्ते में जैव ईंधन व कागज की लकड़ी हासिल की जा सके। इस जंगल के फैलाव में पर्यावरण के प्रति विकसित देशों की कागजी प्रतिबद्धताएं भी जिम्मेदार हैं। जी-20 देशों ने 2009 में जीवाश्म ईंधन पर 312 अरब डॉलर की सब्सिडी दी थी जो कि 2010 में बढ़कर 409 अरब डॉलर हो गई। यह स्थिति तब है जब कोपेनहेगन और कानकुन में आयोजित पर्यावरण सम्मेलनों ने इन देशों ने कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी को घातक बताते हुए इसमें कटौती को जरूरी माना था। बायोडीजल-एथनॉल बनाने के लिए दुनिया में कई फसलें प्रयुक्त की जा रही हैं। अमेरिका में मक्का, गेहूं व सोयाबीन से बायोडीजल बनाया जा रहा है तो यूरोप में रेपसीड, सोयाबीन व पाम ऑयल से। ब्राजील गन्ने व सायोबीन से एथनॉल बना रहा है तो दक्षिण-पूर्व एशियाई देश पाम ऑयल से।
भारत व अफ्रीका में बायोडीजल के लिए मुख्यत: जटरोफा की खेती की जा रही है। ये फसलें आज दुनिया भर में सबसे पसंदीदा फसल बनकर उभरी हैं। इन्हें उगाने के लिए विकसित देश अपने किसानों व कंपनियों को भारी-भरकम सब्सिडी दे रहे हैं। प्रत्यक्ष रूप से तो जैव ईंधन के प्रयोग से कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी आती है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से इसमें वृद्धि होती है। उदाहरण के लिए एक लीटर जैव ईंधन पाने के लिए उपयुक्त फसल उगाने और उसे जैव ईंधन में बदलने की प्रक्रिया के दौरान जो कार्बन डाइऑक्साइड पैदा होती है, वह वाहनों की टंकियों में जैव ईंधन डालने से बचत की गई कार्बन डाइऑक्साइड से अधिक होती है। जैव ईंधन वाली फसलों को उगाने के लिए वनों की कटाई या चरागाहों की जुताई से लाखों टन कार्बन डाइऑक्साइड पैदा होती है। उदाहरण के लिए दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की दलदली भूमि में करोड़ों टन कार्बन डाइऑक्साइड जमा है, लेकिन जब पॉम (ताड़) पौधों के रोपण के लिए दलदली भूमि से जल निकासी और जुताई की जाती है तो उसमें जमा कार्बन डाईऑक्साइड मुक्त होकर हवा में जा मिलती है। दक्षिण अमेरिका में बायोडीजल-एथनॉल के लिए गन्ने व सोयाबीन की खेती की जा रही है। इसके लिए अमेजन बेसिन के लाखों हेक्टेयर वर्षा वन काटे-जलाए जा रहे हैं। अफ्रीका में जटरोफा की खेती का प्रचलन जोरों पर है।
अत्यधिक भूजल खींचने वाले इन पेड़-पौधों से न सिर्फ स्थानीय समुदाय विस्थापित हो रहे हैं बल्कि पारिस्थितिक तंत्र भी खतरे में पड़ता जा रहा है। फिर मुनाफा कमाने की होड़ में खाद्य फसलें उपेक्षित होती जा रही हैं। चुनिंदा प्रजाति के पेड़-पौधों वाले ये विशाल बागान देखने में तो हरे-भरे जंगल लगते हैं, लेकिन उनके पास जाने पर वहां न तो चिडि़यां चहचहाती हैं और न ही शेर की दहाड़ सुनाई देती है। बॉयोडीजल से जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल में कमी का लक्ष्य भी गले नहीं उतरता, हां, इसके चलते भुखमरी की फसल लहलहाएगी इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। उदाहरण के लिए 25 गैलन की टंकी को एथनॉल से भरने में जितने मक्के की जरूरत पड़ेगी वह एक व्यक्ति के साल भर की खाद्य आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। ऐसे में जैसे-जैसे मक्का से बायोडीजल बनाने की प्रवृत्ति बढ़ेगी वैसे-वैसे न केवल मक्के की बल्कि मक्का से बनने वाले खाद्य व अखाद्य उत्पादों की कीमतें भी बढ़ेगीं। इतना ही नहीं यदि अमेरिका में पैदा होने वाले कुल अनाज का भी एथनॉल बनाया जाए तो वह उसकी महज 16 फीसदी ईंधन जरूरतों को ही पूरी कर पाएगा। फिर अनाज की कीमतें एक ऐसे समय में बढ़ रही हैं जब दुनिया में खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि दर ढलान पर है। ऐसे में हरे-भरे रेगिस्तानों के बढ़ते दायरे से भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या बढ़े तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
लेखक रमेश कुमार दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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