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यहां मुन्नी से लेकर चमेली तक बदनाम होती हैं. कभी उन्हें खुद बदनाम होना अच्छा लगता है और कभी उन्हें दूसरे बदनाम कर देते हैं. समाज और फिल्मों का हमेशा से गहरा नाता रहा है, कभी फिल्मों ने समाज को और कभी समाज ने फिल्मों को प्रभावित किया है. चमेली, मुन्नी बदनाम हुई, फेवीकॉल से, लैला तेरी ले लेगी जान, चमेली, जैसे हजारों गाने हैं जिसमें हसीनाओं ने अपने अंग का कुछ इस कदर प्रदर्शन किया है कि समाज में महिलाओं के अंग प्रदर्शन की सीमा को लेकर हजारों सवाल उठने लगे हैं.
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गानों में ही नहीं फिल्मों में भी महिलाओं के अंग प्रदर्शन से बॉक्स ऑफिस पर फिल्में चलाई जाती हैं. यदि कुछ निर्देशकों की इस बात पर यकीन कर लिया जाए कि सिर्फ अभिनेत्रियों के अंग प्रदर्शन से फिल्में बॉक्स ऑफिस पर नहीं चलती हैं तो शायद सनी लियोन, पूनम पांडे और शर्लिन चोपड़ा जैसे नाम की जरूरत हिन्दी सिनेमा को नहीं होती. आज हिन्दी सिनेमा अपने सौ साल पूरे करने जा रहा है और इन सालों में ऐसी बहुत सी फिल्में आई हैं जिनमें अभिनेत्रियों के लीड रोल से फिल्में सुपरहिट हुई हैं फिर चाहे वो सालों पहले आई ‘मदर इंडिया’ हो या फिर साल भर पहले आई ‘कहानी’ फिल्म हो. इस बात को आज के मशहूर निर्देशक सुधीर मिश्रा भी मानते हैं कि अभिनेत्रियों के लीड रोल से फिल्म की पूरी कहानी पर असर पड़ता है लेकिन अधिकांश ऐसा होता है जब अभिनेत्रियों के किरदार के साथ इंसाफ नहीं किया जाता है क्योंकि मात्र उनके प्रयोग से ही फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर चलाने की कोशिश की जाती है फिर चाहे उनको फिल्म में मदर इंडिया बनाया जाए या फिर किसी वेश्या का किरदार निभाने के लिए कहा जाए.
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महेश भट्ट, एकता कपूर जैसे तमाम ऐसे निर्देशक जो फिल्मों में बोल्ड और सेक्सी सीन दिखाए जाने को मात्र फिल्म की कहानी का हिस्सा मानते हैं और इस बात पर विश्वास रखते हैं कि अभिनेत्रियों के बोल्ड सीन करने को महिलाओं की स्वतत्रंता से जोड़ कर देखा जा सकता हैं वो शायद इस बात को भूल जाते हैं कि फिल्मों में दिखाए जाने वाले बोल्ड सीन समाज में सेक्स की भावना को उत्तेजित करते हैं. इस बात में कोई शक नहीं है कि हिन्दी सिनेमा ने समाज को ऐसी फिल्में दी हैं जिनसे महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ है पर साथ ही ऐसी फिल्में बहुतायत में बन रही हैं जिनमें महिलाओं को सिर्फ एक सेक्स सिंबल के रूप में दिखाया जा रहा है.
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