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आज मल्टिप्लेक्स का जमाना है, जहां एक ही थियेटर के अंदर कई फिल्में एक साथ चलाई जाती हैं. दर्शक अपनी सुविधा और इच्छानुसार जो मर्जी फिल्म देख सकते हैं. यहां तक कि ऑनलाइन टिकट बुक करवाकर वह लंबी लाइन में खड़े होने से भी बच जाते हैं. लेकिन पहले ऐसा कुछ नहीं था. सिनेमा का समय ऐसा भी था जब फिल्म के एक टिकट के लिए घंटों लाइन में खड़ा होना पड़ता था. फिल्म का टिकट दर्शकों के लिए इतना जरूरी होता था कि बस एक टिकट के लिए गोलियां और लड़ाई-झगड़े भी हो जाते थे.
आज एक शहर में ना जाने कितने फिल्म थियेटर होते हैं लेकिन पहले किसी शहर में या तो एक थियेटर होता था या फिर होता ही नहीं था इसीलिए फर्स्ट डे फर्स्ट शो के समय भीड़ लगना लाजमी था. जमशेदपुर पर हिन्दी सिनेमा का जुनून इस कदर हावी था कि 70 के दशक में फिल्म जॉनी मेरा नाम के टिकट के लिए गोलियां चल गईं जिसमें हाईस्कूल में पढ़ने वाले दो छात्रों की मौत तक हो गई थी.
जॉनी मेरा नाम फिल्म नटराज टॉकीज, बिष्टुपुर में लगी थी. इस घटना के बाद नटराज टॉकीज पूरे एक सप्ताह तक बंद रहा था. यह काल सिनेमा के दीवानों का समय था. लोग लड़कर, मार खाकर, कपड़े फड़वाकर भी पहले पैसे देते थे फिर कहीं जाकर उन्हें टिकट मिलती थी.
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उस समय सिनेमा हॉल भी अच्छे नहीं होते थे लेकिन फिर भी लोग पसीने से तरबतर हो कर भी फिल्म देखने आते थे. अगर उन्हें कोई फिल्म का टिकट दे दे तो वह उसके लिए भगवान से कम नहीं रह जाता था. और अगर कोई फिल्म का पास दे तो उसका दर्जा तो भगवान से भी ऊपर होता था. उस दौर में सिनेमा मालिकों की चांदी थी.
1975 में रिलीज हुई फिल्म शोले ने जमशेदपुर टॉकीज में 29 सप्ताह तक चलकर सिल्वर जुबिली मनाई. शोले के पीछे लोगों की दीवानगी इतनी जबरदस्त थी कि शहर में जगह-जगह फिल्म का रिकार्ड बजता था और लोग भीड़ लगाकर सुनते थे. ये ऐसी फिल्म थी जिसके गानों से अधिक रिकार्ड बजते थे.
इस फिल्म के बाद वर्ष 1977 में जय संतोषी मां जैसी धार्मिक फिल्म पर्दे पर आई. यह फिल्म बसंत टॉकीज में 19 सप्ताह चली. लोग फिल्म की अदाकारा को ही संतोषी मां समझकर पैसे चढ़ाते थे. दर्शकों की इस श्रद्धा को समझते हुए टॉकीज के मालिक हरि नारायण पारीक ने पर्दे के सामने ही संतोषी मां की मूर्ति स्थापित कर दी. लोग पहले पूजा करते थे, पैसे चढ़ाते थे और इसके बाद फिल्म देखते थे. हर नई रिलीज हुई फिल्म के टिकट दोगुने-तिगुने दाम पर ब्लैक में बिकते थे. टिकट ब्लैकमेलिंग कमाई का एक बहुत बड़ा माध्यम बन गया था.
1950 से 1970 तक टाटा स्टील की ओर से मुहल्ले-मुहल्ले पर्दा लगाकर मजदूरों और उनके परिवार वालों को सिनेमा दिखाया जाता था. टाटा मोटर्स कंपनी की ओर से गेट के बगल में स्थित दीवार पर पर्दा लगाकर सिनेमा दिखाया जाता था. तब लोग इसे फोकटिया सिनेमा कहते थे. फोकटिया सिनेमा देखने के लिए पूरा शहर उमड़ता था.
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