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बेटी से वेश्या तक के सफर की सच्ची कहानी

हिन्दी सिनेमा का सफरनामा
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एक वेश्या की कहानी सब सुनते तो हैं पर इस कहानी को आवाज कोई नहीं दे पाता है. एक बेटी से वेश्या तक के सफर की कहानी सब सुनेंगे पर अधिकांश लोग सिर्फ इसे कहानी समझकर भूल जाएंगे. बहुत कम व्यक्ति ऐसे होंगे जो इस कहानी की गहराई में जाकर उसके प्रति आवाज उठाने की कोशिश करते हैं. आज हर तरफ हलचल है, हर किसी को सुपरहिट होना है फिर चाहे कीमत कुछ भी हो. ऐसा ही हाल बॉलीवुड का है. एक समय था जब बॉलीवुड में महिलाओं पर हो रहे शोषण को लेकर फिल्में बनाई जाती थीं और आज महिलाओं का जिस्म, खूबसूरती, नशीलापन दिखाकर फिल्में बॉक्स ऑफिस पर हिट कराई जाती हैं. वैसे इस बात पर गंभीरता से विचार करें तो औरतों के शोषण पर फिल्म बनाना और औरतों का जिस्म दिखाकर फिल्म हिट कराने में गहरा अंतर है और इसी अंतर के कारण आज बॉलीवुड की अधिकांश फिल्में सिर्फ नाम भर के लिए सामाजिक परिवर्तन पर बनती हैं. यदि आज के कुछ निर्देशकों ने सामाजिक परिवर्तन पर फिल्म बनाई भी तो उस फिल्म में कुछ ऐसे सींस रहे हैं जिस कारण वो फिल्म बॉक्स ऑफिस पर तो सुपरहिट हो गई पर सामाजिक आधार पर परिवर्तन के नाम पर फेल हो गई.

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mai tulsi tere aangan kiआज से सालों पहले बॉलीवुड ने उन फिल्मों को ज्यादा महत्व दिया था जिन फिल्मों से सामाजिक परिवर्तन होता है और उन्हीं फिल्मों में अधिकांश फिल्में महिला शोषण पर आधारित होती थीं. ‘प्यासा’ और ‘चेतना’ जैसी सुपरहिट फिल्में सामाजिक परिवर्तन का आधार बनी थीं और उसके बाद इस तरह की कई फिल्में आईं. फिल्म ‘सोने की चिड़िया’ बनी, जिसमें एक युवा अभिनेत्री की जिंदगी दिखायी गई, हृषिकेश मुखर्जी की ‘गुड्डी’ जिसमें एक किशोरी की फिल्म अभिनेताओं के प्रति दीवानगी को दिखाया गया और श्याम बनेगल की ‘भूमिका’ जिसे प्रसिद्ध मराठी अभिनेत्री हंसा वाडकर की जिंदगी से प्रेरित हो कर बनाई गई थी. यह सब फिल्में अपने समय की सुपरहिट फिल्में थीं और इन फिल्म की कहानियां महिला पर हो रहे शोषण की सच्चाई को बयां करती थीं.


पर्दे पर महिलाओं के जीवन से जुड़ी सच्चाई को दिखाना बॉलीवुड के कुछ निर्देशकों के लिए काफी चुनौतीपूर्ण था. महिलाओं पर केंद्रित कथाओं पर हृषिकेश मुखर्जी की ‘अनुपमा’, ‘अनुराधा’, सत्यजित राय की ‘चारुलता’, 1936 में आई वी. शांताराम की ‘ अमर ज्योति’ महत्वपूर्ण फिल्में हैं. बॉलीवुड के कुछ निर्देशकों ने महिलाओं से जुड़ी मुख्य समस्याओं पर फिल्म बनाने की कोशिश की जो कामयाब भी रही हैं. 1942 में बाल विवाह पर बनी फिल्म ‘शारदा’, 1937 में वी. शांताराम ने ‘दुनिया न माने’ फिल्म बनाई जिसमें युवा लड़की के वृद्ध व्यक्ति से विवाह करने के कारणों को दिखाया गया हैं. वी. शांताराम ने सिर्फ बाल विवाह पर ही नहीं दहेज प्रथा पर भी फिल्म बनाई थी जिसका नाम था ‘दहेज’ और आज भी यह फिल्म बॉलीवुड की सुपरहिट फिल्मों में से एक है. फिल्म ‘बालिका वधू’ और ‘उपहार’ भी महिला शोषण पर बनी सुपरहिट फिल्में हैं.

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बॉलीवुड के कुछ निर्देशक ऐसे भी थे जो महिला शोषण को आधार बनाकर फिल्में निर्देशित करना चाहते थे पर साथ ही उन फिल्मों को नए नजरिए के साथ प्रदर्शित करना चाहते थे जिस कारण ‘दूसरी शादी’ जैसी फिल्में बनाई गईं जिसमें यह दिखाया गया कि एक महिला सिर्फ दहेज, बाल-विवाह, जैसी समस्याओं को नहीं झेलती है. एक महिला का तब भी शोषण होता है जब उसका पति उससे शादी करने के बाद भी किसी और को दूसरी पत्नी बनाकर घर ले आता है. ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ जैसी सुपरहिट फिल्म का आधार भी एक महिला ही थी.


today movie style for womenआज बॉलीवुड में कुछ निर्देशक महिलाओं के शोषण के ऊपर फिल्म बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिनमें से एक नाम मधुर भंडारकर का है. ‘फैशन’ और हिरोइन जैसी फिल्मों की कहानी महिलाओं पर हो रहे शोषण को व्यक्त करती हैं. हां, यह बात और है कि आज के समय में इन फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर हिट कराने के लिए कुछ ऐसे सींस डाले जाते हैं जो सिर्फ बड़े पर्दे तक लोगों को आकर्षित करने का काम करते हैं. निर्देशक ‘शोएब मंसूर’ ने भी ‘बोल’ की फिल्म बनाकर महिलाओं पर हो रहे शोषण को दिखाने की कोशिश की थी और यह कोशिश काफी हद तक कामयाब भी रही थी. कुछ ही समय बाद रोमू सिप्पी की ‘इंकार’ फिल्म रिलीज होने वाली है और इस फिल्म की कहानी का आधार ‘कॉर्पोरेट हाउस’ में महिलाओं के साथ होने वाने शोषण को बनाया गया है. अभी तक यही कहा जा रहा है कि इस फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर हिट कराने के लिए काफी बोल्ड सींस डाले गए हैं. अब यह तो वक्त ही बताएगा कि बॉलीवुड में फिल्में सिर्फ अपने बोल्ड सींस के कारण हिट होंगी या फिर अधिकांश नहीं तो कुछ फिल्मों की कहानियों का आधार सामाजिक परिवर्तन भी होगा.


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अब शायद यह लौट कर नहीं आएंगे


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