- 150 Posts
- 69 Comments
हिन्दी सिनेमा सौ वर्षों का समय पूरा करने वाला है. फिल्मों के इतिहास पर नजर डाली जाए तो फिल्म उद्योग के लिए यह सफर किसी भी रूप में आसान नहीं रहा. लेकिन दिल्ली एकमात्र ऐसा शहर रहा जो हर कदम पर फिल्म इंडस्ट्री के हमसफर के रूप में उसका साथ निभाता चला और यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है.
अंग्रेजी शासनकाल से लोकतंत्रीय भारत और फिर आधुनिकता की बयार चलने के बावजूद दिल्ली ने फिल्मी दुनिया का साथ नहीं छोड़ा. दिल्ली, जो अब भारत की राजधानी है, स्थित रीगल सिनेमा हॉल सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले पृथ्वीराज कपूर और शो मैन राज कपूर के लिए घर जैसा था. इन दोनों महान कलाकारों ने यहां कई शो किए जिन्हें देखने के लिए देश-विदेश की बड़ी-बड़ी हस्तियां पहुंचती थीं.
बदलते वक्त ने सिनेमा और तकनीकों को बदल दिया, इस बदलाव से दिल्ली भी बच नहीं पाई. जब फिल्मी दुनिया परिवर्तित हो रही थी तो दिल्ली का बदलना भी जरूरी था. दिल्ली ने अपनी सूरत बदल ली और फिर से वह एक बार निर्माता-निर्देशकों की पहली पसंद बन गई. पिछले कुछ सालों में फिल्मी पर्दे पर दिल्ली अपनी खूबसूरती लगातार दर्शाती रही. शहर ही नहीं समय के साथ-साथ दिल्ली के सिनेमाघरों के स्वरूप में भी बहुत महत्वपूर्ण बदलाव आया.
पहले जहां छप्पर वाले सिनेमाघर चलते थे वहीं अब बड़े-बड़े मल्टिप्लेक्स अपनी पहचान स्थापित कर चुके हैं. यही वजह है कि फिल्मों के पीछे जो दीवानगी उस समय देखी जा सकती थी अब वह नजर ही नहीं आती. टेलीविजन, इंटरनेट और मोबाइल फोन तक पर फिल्म देखने की सुविधा मिल जाने के कारण टिकटों के लिए मारामारी और पुलिस की लाठियां पड़नी भी अब नहीं देखी जाती हैं.
फिल्मों की जान दिल्ली का कनॉट प्लेस
हिंदी फिल्मों की शुरुआत से पहले ही दिल्ली के दिल में स्थित कनॉट प्लेस थियेटरों के हब के रूप में प्रचलित था. यहां रशियन बैले, उर्दू नाटक और मूक फिल्में दिखाई जाती थीं. उस समय पृथ्वीराज कपूर ने कनॉट प्लेस स्थित थियेटरों में हुए कई नाटकों में अभिनय किया था.
दिल्ली में टॉकीज की शुरुआत
वर्ष 1931 में आई पहली टॉकी (आवाज वाली फिल्म) आलमआरा के रिलीज होने के बाद थियेटरों को टॉकीज कहा जाने लगा था. ज्यादातर टॉकीज वर्ष 1930 के आसपास बनाए गए. इनमें रीगल, रिवोली, ओडियन और प्लाजा शामिल हैं. 1940 के दौरान टॉकीज धीरे-धीरे सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल में तब्दील हो गए. ओडियन सिनेमा हॉल में भारतीय और पाश्चात्य फिल्म दोनों ही दिखाई जाती थीं. उन दिनों एक दिन में चार फिल्में दिखाई जाती थीं. टिकट का दाम 0.012 पैसे से लेकर 1.23 रुपये के बीच होता था, जो सीट पर निर्भर करता था.
दिल्ली के पुराने सिनेमाघर
उस जमाने में दिल्ली में आठ से दस सिनेमाघर थे, जिनमें रीगल सबसे पुराना सिनेमा हॉल है.
रीगल: रीगल को वॉल्टर स्काइज जॉर्ज ने डिजाइन किया था, जो कुछ हद तक मुगल कालीन कला से प्रभावित थे. 1932 में पहली बार यह सिनेमा हॉल खुला तो नई दिल्ली प्रीमियर थियेटर के नाम से मशहूर हुआ. रीगल बॉलीवुड स्टार राज कपूर का पसंदीदा हॉल था. उनकी वर्ष 1978 की मेगा हिट सत्यम शिवम सुंदरम यहां लगातार 25 हफ्ते चली और फिल्म ने सिल्वर जुबली मनाई.
प्लाजा: वर्ष 1940 में बनकर तैयार हुए इस हॉल को वर्ष 1960 में जसपाल साहनी, शम्मी कपूर और मशहूर फिल्म मेकर केके मोदी ने मिलकर खरीदा था. वर्ष 1964 में ऐसा पहला सिनेमा हॉल था जो एक हफ्ते में वॉर्नर ब्रदर्स की सात अलग-अलग फिल्में प्रदर्शित करता था. अमेरिकी अभिनेत्री शर्ले मैकलेन विशेष रूप से एक स्क्रीनिंग में शामिल होने भारत आई थीं.
रिवोली: कनॉट प्लेस का सबसे छोटा सिनेमा हॉल रिवोली 1934 में बनकर तैयार हुआ. इस हाल में न्यूनतम वास्तुकला का इस्तेमाल किया गया. 1960 में रिवोली नई दिल्ली के उन चुनिंदा हॉल में था, जो पूरी तरह वातानुकूलित था.
ओडियन: ओडियन 1939 में बनकर तैयार हुआ था. इसे ब्रिटिश वास्तुकार टोर रसेल द्वारा ओपेरा हाउस शैली में डिजाइन किया गया था. वर्ष 1963 में इस हॉल में बालकनी शामिल की गई जिसे वीआईपी लोगों के लिए आरक्षित किया गया.
शूटिंग के लिहाज से दिल्ली हमेशा से ही बॉलिवुड की पसंदीदा नगरी रही है. निजामुद्दीन दरगाह हो, रोशनी में जगमगाता लाल किला या फिर चमचमाती दिल्ली मेट्रो, आजकल हिंदी सिनेमा में यह नजारे देखना अब एक सामान्य बात है.
Read Comments