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कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है,
शायद आपके दिल में भी आता हो …
हमारा देश, हमारा हिंदुस्तान पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालिस को आज़ाद हुआ और फिर 24 माह से भी कम समय में संविधान, बनकर लागू हो गया; वह भी विश्व के सबसे बड़े लिखित संविधान होने का तमगा लेकर; ठीक वैसे ही जैसे नेहरू जी पैदा हुए थे- मुंह में चांदी का चम्मच लेकर…………
हमारे देश के संविधान की यह विशेषता ही मेरे चिंतित होने का विषय है| आखिर एक ऐसा देश जो सांस्कृतिक, धार्मिक, पारंपरिक, दार्शनिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्तर पर विभिन्नताओं से भरा पड़ा है, उसके लिए एक सर्वमान्य संविधान को बनाने के स्थान पर नयी-नयी आज़ादी के अहसास में डूबे मदहोश (मानो अफीम के नशे में चूर हों) लोगों पर जल्दबाजी में एक ऐसा संविधान क्यों थोपा गया, जो ऐसे लोगों के द्वारा बनाया गया था जिन्हें जनता ने चुना भी नहीं था?
मुझे कभी भी इस सवाल का जवाब नहीं मिल पाया कि वह भारतीय जनमानस जिसने या तो राजशाही देखी थी या फिर गुलामी, उसने लोकतंत्र को न जाना न समझा फिर भी उस पर दुनिया का सबसे बड़ा और भरी-भरकम, बोझल संविधान थोपने की इतनी बड़ी जल्दी क्या और क्यों थी?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दागी एवं सजायाफ्ता जनप्रतिनिधियों के बारे में आया निर्देश पहले तो संसद में बदलने की घिनौनी कोशिश हुई और फिर सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पड़ी की- ‘संविधान निर्माताओं की मंशा इस सम्बन्ध में स्पष्ट नहीं थी|’ सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पड़ी मेरे मन में कभी-कभी आने वाले खयालों की बारंबारता को बढ़ा देती है|
क्या हुआ तेरा वादा, वो कसम वो इरादा,
शायद आपको भी कोई वादा-इरादा याद आता हो …
खयालों से निकलता हूँ तो संविधान के वादों और इरादों में उलझकर रह जाता हूँ| जहाँ तक मैं समझता हूँ किसी भी देश का संविधान कुछ स्पष्ट वादों-इरादों के साथ अस्तित्व में आता है; संविधान साधारणतः अपने नागरिको को समान न्याय, आजीविका के अवसर, सम्मान, इत्यादि उपलब्ध कराने का वादा करता है और साथ ही साथ नागरिको और देश की सीमाओं की पूर्ण सुरक्षा एवं शान्ति को बनाये रखने का मजबूत इरादा भी प्रकट करता है| तटस्थ भाव से देखने पर हमारे ऊपर थोपा गया ये संविधान उपरोक्त दोनों मामलों में पूरी तरह से असफल सिद्ध होता है| नागरिको के लिए सिर्फ वादे है जो चुनाव लड़ने के हथियार के रूप में प्रयुक्त होते हैं और इन वादों के लिफाफों में लपेटकर जातिवाद, सम्प्रदायवाद, प्रलोभन जैसे जहर को खुलेआम बांटने की पूरी छूट संविधान ने दे रखी है|
इसके इरादे तो इतने फौलादी हैं कि एक तरफ राजधानी की सड़कों पर खुलेआम महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाता है, उन्हें बेरहमी से क़त्ल कर दिया जाता है और फिर गुनाहगारों को नाबालिग मानकर माफ़ कर दिया जाता है; तो दूसरी तरफ सीमा पर हमारे सैनिकों का सर काटकर पडोसी देश को निर्यात कर दिया जाता है और मजबूत इरादों वाला संविधान देश के विदेशमंत्री को ‘वार्ता जारी रहनी चाहिए’ जैसे देशद्रोही जुमलों को बोलने की इजाज़त भी देता है|
कोई न होगा भूखा-प्यासा, पूरी होगी सबकी आशा, हम हैं राजा;
शायद ऐसा ही कुछ आप भी सोचते हों लोकतंत्र के बारे में …
बिना फैमिली प्लानिंग के 40 करोड़ से भी ज्यादा भूखे-नंगे और कुपोषित लोगों की भीड़ पैदा की है| लोकतंत्र के इन राजाओं की हालत ये है कि सरकार (जो इन्होने खुद चुनी है) के द्वारा बांटी जा रही खैरात को पाने के लिये अक्सर बड़ी लम्बी-लम्बी कतारों में खड़े नजर आते हैं, और वोट बैंक बनने के लिए बेतहाशा बच्चे पैदा करते है जबकि जनसँख्या का दबाव झेल रही कृषि व अर्थव्यवस्था की चरमराहट कब चीत्कार में बदल चुकी है इसकी कानो-कान खबर इस संविधान को आज तक नहीं हो पाई है|
बातें हैं, बातों का क्या,
शायद आपको भी लगता हो …
‘बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर; पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर…’ से बड़ा कौन सा काम कर दिखाया ! यदि ऐसा है तो इस संविधान का पुनरावलोकन एवं परिवर्तन क्यों न हो? ‘संविधान सर्वोपरि है’ जैसे भ्रामक कथनों पर रोक लगाकर ‘राष्ट्र सर्वोपरि है’ की सच्चाई को क्यों स्वीकार न किया जाए?
इदं न मम, इदं राष्ट्राय …
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