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नरेन्द्र मोदी vs अरविन्द केजरीवाल

चातक
चातक
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हिन्दुस्तान के आम चुनावों में अब तक के सबसे ख़ास चुनाव के समय ज्यादा चर्चा सिर्फ दो व्यक्तियों की हो रही है; एक हैं, नरेन्द्र मोदी और दूसरे हैं, अरविन्द केजरीवाल| अरविन्द केजरीवाल ने भले ही एक साल से भी कम समय में राष्ट्रीय राजनीति में ख़ासा हलचल पैदा कर दी है लेकिन उनकी राजनीतिक सोच और चरित्र दोनों इसी अल्प समय में ही दागदार भी हो चुके हैं| निश्चय ही यह स्थिति उनके राजनीतिक भविष्य के लिए बहुत बुरी साबित होने वाली है| केजरीवाल का दोषपूर्ण व्यक्तित्व भी उनके मार्ग की एक बहुत बड़ी बाधा है| आजकल तो आलम ये है कि केजरीवाल को उनके अपने समर्थक भी गंभीरता से नहीं लेते क्योंकि ज्यादातर लोग उनकी आरोप उछालने और दूसरों पर कीचड फेकने के स्टंट से ऊब चुके हैं| फिलहाल तो स्पष्ट देखा जा सकता है कि अरविन्द केजरीवाल के पास मोदी विरोध को छोड़कर कोई बात नही है| उनके भाषणों से यदि मोदी पर किये गए कमेंट्स को हटा दिया जाए तो वे कमोवेश मनमोहन सिंह से भी ज्यादा चुप नजर आने लगेंगे| बड़ा क्षोभ होता है ये देखकर कि एक अच्छा और पढ़ा लिखा पूर्व आई०ए० एस० शब्दों के लिए तरस रहा है उसके पास अपने देश के बारे में, उसकी समस्या, उसकी नीतियों के बारे में कोई विचार ही नहीं है!
विचार करता हूँ तो समझ में आता है कि केजरीवाल ने अन्ना के आन्दोलन में मैनेजमेंट सीखा, बोलने का हुनर माँजा और जब उन्हें लगा कि वे अब लोगों को रिझाने और सार्वजनिक रूप से झूठ को सच और सच को झूठ बनाने की कला सीख गए हैं तो अपने पूर्वनियोजित कार्यक्रम के तहत राजनीति में छलांग लगा दी| केजरीवाल के दिल्ली में सफल होने का कारण कांग्रेस विरोधी लहर, भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा और इलेक्ट्रानिक मीडिया की मेहरबानी रही| सचमुच आश्चर्यजनक था कि दिल्ली में उनकी पार्टी दूसरे स्थान पर रही जबकि उन्होंने दिल्ली के लिए न तो किसी नीति को, न विकास की रूपरेखा को और न ही दिल्लीवासियों के लिए कोई जनकल्याणकारी योजना को सामने रखा था! सिर्फ वादे थे वो भी ऐसे जिनका कोई औचित्यपूर्ण आधार नही था| कुल मिला कर अरविन्द की शख्सियत पूरी तरह से इलेक्ट्रानिक मीडिया के रहमो-करम पर ही है और जिस मीडिया ने उन्हें बनाया है वही मीडिया उन्हें मुंह के बल गिरने से रोक नही पायेगा|
दूसरी तरफ चर्चा के, विरोधी पार्टियों के निशाने और साथ ही साथ जिज्ञासा से भी केंद्र बिंदु हैं, नरेन्द्र मोदी जिन्होंने ‘भारत कैसा होना चाहिए? कैसा है? और वे इसे कैसा बनाना और देखना चाहते हैं?’ सभी बिन्दुओं पर बड़ी ही स्पष्ट योजनायें सामने रखी, चल रही योजनाओं की खामियां उजागर की, और सवाल कि ‘क्या उनकी योजना सही है?’ पर ‘गुजरात मॉडल की सफलता’ का उदाहरण प्रस्तुत किया| मोदी ने वादे किये और उन वादों को वो निभा सकते हैं, इस बात की, ‘गुजरात में किये गए विकास के कार्यों को दिखाकर’, गारंटी भी दी| शायद  यही कारण है कि उन्हें जनमानस का समर्थन मिलता चला गया| दुरूह परिस्थितयों में बिना विचलित हुए जिस तटस्थता से उन्होंने अपने कार्य को जारी रखा वह लोगों में विश्वास जगाता है और उनकी बाते उनका व्यक्तित्व मीडिया की गुलामी से आज़ाद रहता है| मोदी ने अपने समर्थकों को यकीन दिलाया कि वे उनके विश्वास को कभी टूटने नहीं देंगे| परिणाम ये हुआ कि मोदी के समर्थकों में पार्टी कार्यकर्ताओं से हट कर देश के असली आम आदमी की बाढ़ आनी शुरू हो गई| मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व कैमरे और शोर की देन नही है बल्कि लगतार चुनौतियों का सामना करते हुए हर बार स्वयं को सिद्ध करने की क्षमता और उनका अद्भुत समर्पण है| मोदी जब भी मंच पर होते हैं तो उनके भाषण में जहाँ विकास की स्पष्ट रूपरेखा होती है, वहीँ राष्ट्र की आतंरिक और वाह्य सुरक्षा की अदम्य इच्छा भी प्रकट होती है जो उन्हें बड़ी ही आसानी से एक आम हिन्दुस्तानी से जोड़ती है|
एक ओर जहाँ केजरीवाल सिर्फ और सिर्फ मोदी के ऊपर प्रहार के नायब तरीके खोजने में अपने मूल बिंदु ‘भ्रष्टाचार उन्मूलन’ से भटक जाते हैं वहीँ मोदी किसी और बात में समय न गंवाते हुए विकास का फार्मूला देते हैं| जहाँ केजरीवाल भ्रष्टाचार को भुलाकर साम्प्रदायिकता की बात करके मोदी को असहज करने की कोशिश करते हैं वहीँ मोदी सीधे पकिस्तान और चीन को हद में रहने की चेतावनी देते हैं| जहाँ केजरीवाल बांग्लादेशी घुसपैठियों की हिमायत और काश्मीर मसले पर अपने सहयोगियों की बातों पर लीपलोती कर खुद बेनकाब हो जाते हैं वहीँ ‘मोदी ही आतंकियों के निशाने पर क्यों?’ का जवाब जनता स्वयं ढूँढ लेती है| आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र ऐसे ही कई प्रश्नों पर जनता स्वयं विचार कर रही है और आश्चर्यजनक है कि इस बार जनता बड़ी तेजी से निर्णय भी ले रही है| क्या होगा ये भविष्य के गर्भ में है लेकिन हम ‘अच्छा होगा’ की आशा तो जरूर रख सकते हैं|

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