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बहु प्रतीक्षित १६ मई

चातक
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हमारे देश में आम चुनावों का त्यौहार तो बहुत बार आया और हर बार कोई न कोई प्रधानमंत्री भी बना। यहाँ पर सिर्फ इतना कहना पर्याप्त है कि देश ने लाल बहादुर शास्त्री जैसे प्रधानमंत्री खोये और एच० डी० देवेगौडा जैसे प्रधानमंत्री भी इसे मिले।
लेकिन इस बार मामला जरा हट के है। कांग्रेस की विदाई तो ‘बड़े बे-आबरू होक तेरे कूचे से हम निकले’ वाली होनी तय मानी जा रही है साथ ही साथ तीसरे मोर्चे के (यानि दिल्ली में सांसद बेचने वाली जमात) कांग्रस से ज्यादा मजबूत नज़र आने का अनुमान भी है। यानि कुल मिलाकर यदि भाजपा, एन० डी० ए० को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो देश फिर किसी देवेगौडा को ढोएगा वह भी न जाने कितनी खरीद-फरोख्त, उठा-पटक, सीक्रेट मीटिंग, और राष्ट्रहित पर किये गए समझौतों के बाद। ऐसा हुआ तो सरकार बनने के साथ ही चीन, पाकिस्तान, और बांग्लादेश में होली मनाई जायेगी [क्योंकि दीपावली तो वे 16 मई को ही मना चुके होंगे]।
सबसे ज्यादा परेशानी में होगा इलेक्ट्रानिक मीडिया। मोदी से ये अभी से ही ऐसे सवाल पूछ रहे है मानो वो देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं। लगता है मीडिया अपने खुद के खड़े किये गए शिगूफे का हश्र समझ चुकी है इसीलिए प्रथम चरण के मतदान होने के साथ ही उसने अपने प्रत्याशी और पार्टी दोनों से किनारा कर लिया है।
इन आम चुनावों में चुनाव आयोग का दामन भी काफी मैला हुआ है। चुनाव आयोग की अयोग्यता और पक्षपातपूर्ण रवैये ने बार-बार टी.एन.शेषन. और एन. गोपालस्वामी की कमी का अहसास कराया। जहाँ तक उत्तर-प्रदेश की बात है, यहाँ पर चुनाव आयोग हर मोर्चे पर नाकाम रहा। चुनाव आयोग की इस नाकामी का फायदा उठाते अन्य नेताओं और पार्टियों को देखकर नरेन्द्र मोदी सरीखा नेता भी जातीय वोट बैंक को साधने में लग गया। भले ही मोदी का ये राजनीतिक दाँव बसपा के पीछे लगे पिछड़े वर्ग को बसपा जैसी पार्टियों की हकीकत का सन्देश दे गया हो लेकिन मोदी की स्वयं अपनी स्वच्छ छवि पर तो दाग जरूर लगा। मायावती जैसे नेताओं की जुबान राष्ट्रीय राजनीति के लिए उपयुक्त नहीं लेकिन प्रियंका जैसी खालिश राष्ट्रीय राजनीति की उत्तराधिकारी की जुबान मायावती से भी ज्यादा बेढंगी चली। परन्तु इन सभी का प्रेरणा स्रोत स्वयं चुनाव आयोग रहा जिसने चुनाव प्रचार से लेकर चुनाव के परिणाम आने तक के दौरान कहीं से भी ये अहसास नहीं कराया कि वी.एस.संपत उस कुर्सी के लिए उपयुक्त हैं जिस पर कभी एन.गोपालस्वामी और टी.एन. शेषन जी बैठा करते थे।
काश कि इस समय चुनाव आयुक्त एन.गोपालस्वामी या टी.एन. शेषन जी होते! ममता बनर्जी जैसे नेता अपना मुंह खोलने से पहले हजार बार सोचते और देशद्रोही बयान देने से पहले उनके खुद के पासपोर्ट पर बांग्लादेश या पकिस्तान की मुहर लग चुकी होती। निश्चय ही 16 मई के परिणाम मुख्य चुनाव आयुक्त की कमजोरियों और आयोग के पक्षपात से भी प्रभावित नजर आएगा।

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