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एक आशिक की डायरी से- 2

चातक
चातक
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मई १६, २०१०


जीवन बोझ सा बन गया है, शुरुआत ऐसी नहीं थी; जीने की अदम्य इच्छा कुछ भी कर गुजरने का माद्दा था| आसमान बहुत ऊंचा और दुनिया बहुत बड़ी प्रतीत नहीं होती थी; पैर छोटे थे लेकिन कदम मानो पूरी जमीन को वामन देवता की भाँति पल में नाप देने को आतुर!
बचपन सुहाना था, फिर भी पता नहीं कहाँ से एक अजीब सा डर ख़ामोशी से दिल में अपना रास्ता बनाता जा रहा था| वह कभी भी अपने संगी-साथियों से साथ उतना अन्तरंग नहीं रहा जितना ज्यादातर बच्चे होते हैं| उसे हँसना भी आता था और हँसाना भी; वह आसानी से दोस्त बना लेता था और उतनी ही आसानी से उनसे दूर भी हो जाता था| किसी की एक मुस्कराहट उसे अपनी और खींच लेती थे और फिर उसी का कोई एक शब्द उसे चुपचाप उससे दूर ले जाता था कभी पास न आने के लिए| किसी भी बात पर तो कभी बिना बात ही वह हँस सकता था और कभी जरा सी बात पर वो नाराज होकर लड़ पड़ता था| दोस्त उसे भले नहीं समझ पाते थे लेकिन वह सबको समझता था| घर पर भी उसका मिजाज परिवार के लोगों से काफी अलग था, जब सभी खेलना और बातें करना पसंद करते थे तो उसे कोई किताब पसंद आ जाती और वह घर के किसी सुनसान कोने में घंटो के लिए अपनी ही दुनिया में खो जाता| जब बाकी लोग टी.वी. देखने में व्यस्त हो जाते तो वह पापा के साथ खेत में ट्रैक्टर पर बैठा होता था| कहाँ खो गया वो लड़का? कहाँ खो गया उसका अदम्य साहस? कहाँ खो गए उसकी आँखों के सपने? पता नहीं! बहुत ढूँढा, कहीं नहीं मिला!

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