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अतिमहिमामंडन एवं किसी भी व्यक्ति या विचार को आदर्श एवं पूर्ण मान लेना साथ ही दूसरे को निकृष्ट एवं त्रुटिपूर्ण मान लेना भारतीय मानसिकता की वह बीमारी रही है जो गुलामी से सदियों पूर्व इस देश के प्रबुद्द(?) वर्ग ने बोई, काटी और उत्तरोत्तर वृहद स्तर पर बार-बार उगाई है| हर बार इसी मानसिकता ने हमारे राष्ट्र को पतन के गर्त में धकेला है और हर बार किसी न किसी बुराई को अच्छाई के रूप में स्वीकार करके, महिमामंडित करके देश को अगले पतन की ओर अग्रसर किया है|
आज़ादी के बाद यही मानसिकता फिर हिन्दुस्तान को एक राष्ट्र के रूप में उभरने से रोकती और भ्रामक तर्कों, कुतर्को एवं छद्म महिमामंडन की भूल की पुनरावृत्ति करती रही है| इसका प्रमुख उदाहरण गांधीजी की हत्या है, जिसे राष्ट्र की क्षति और मानवता की हत्या सरीखी फर्जी उपमाओं और रूपको से विभूषित करके देश को राष्ट्र के रूप में संगठित होने से रोककर, राजनीतिक लाभ उठाने, और झूठा इतिहास गढ़कर पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता सुख भोगने का साधन बना लिया गया|
गांधी जी की हत्या निश्चित रूप से एक अच्छे व्यक्ति की हत्या थी जिस पर निंदा करना, राजनीतिक फायदा उठाना नहीं बल्कि विचार करना और उसके अर्थ को समझकर राष्ट्र को सही दिशा देने का प्रयास होना चाहिए था | गाँधी जी की हत्या किसी भी तरह से न तो राष्ट्र की क्षति थी न ही मानवता की हत्या| ये दो महान व्यक्तियों का त्याग और दोनों का समान बलिदान था, न एक का कम, न दूसरे का अधिक| ये उसी सार्वभौम सत्य का प्रयोग था जिसमे महान व्यक्तियों को अपनी कुर्बानी देकर अपने विचारों को शाश्वतता प्रदान करनी पड़ती है| देश का दुर्भाग्य है कि गांधीजी की हत्या दूषित राजनीति ने निगल ली और दो महान शाश्वत एवं परस्पर पूरक विचारों को सिरे से मलिन करके गर्त में दफ़न कर दिया|
नाथूराम गोडसे द्वारा गांधीजी की हत्या होना किसी भी तरह से अनुचित, राष्ट्रविरोधी, मानवता-विरोधी या द्वेष से प्रेरित नहीं था बल्कि या एक आवश्यक कार्यवाही थी जो राष्ट्रहित में एक व्यक्ति द्वारा राष्ट्र को सर्वोपरि रखकर की गई|
गांधीजी के सम्पूर्ण दर्शन एवं समस्त आचरण में सबसे आवश्यक और स्पष्ट तथ्य यह है कि वे पूर्णतयः मानवतावादी थे परन्तु लेशमात्र भी राष्ट्रवादी नहीं, और जिस लड़ाई को जीतने का श्रेय जबरदस्ती गांधीजी को दिया जाता है वो लड़ाई मानवता की नहीं बल्कि राष्ट्र की आज़ादी की थी जिस पर आज़ादी मिलने के बाद गांधीजी का छ्द्म मानवतावाद हावी होता जा रहा था और उस छद्म प्रेत के साए से गांधीजी स्वयं ही नहीं लड़ पा रहे थे| वे जितना भी उससे बाहर निकलने की कोशिश करते थे वो उतना ही अधिक उन्हें जकड़ता चला जाता था, और उन्हें राष्ट्र का उग्र विरोधी बनाता जा रहा था| नाथूराम व्यक्तिगत श्रेष्ठता की बेड़ियों को तोड़ पाते तो राष्ट्रवाद सुदृढ़ होता और भारत का निर्माण उत्कृष्ट होता| परन्तु गांधीजी तो स्वयं किंकर्तव्यविमूढ थे| अब उनके लिए न तो आगे जाना संभव था न पीछे लौटना| ऐसे में गोडसे ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए गांधीजी को अपने ही बनाये प्रेत से मुक्ति दी और उन्हें अमर कर दिया| परन्तु विचारहीन राजनीति ने फिर गांधीजी को अतिमाहिमामंडित और राष्ट्रवादी नाथूराम को मानवता का हत्यारा घोषित करके देश को एक ऐसी दिशा में धकेल दिया जिस पर चलकर आज हम फिर देशद्रोहियों को देशभक्त और राष्ट्र-द्रोह को वैचारिक स्वतंत्रता कहकर आस्तीन के सांप पाल रहे है उन्हें संरक्षण और सुविधाएँ दे रहे हैं, राष्ट्रनिर्माण और राष्ट्रवाद तो नाथूराम के साथ स्वतंत्र भारत की जेलों की यातनाएं सहकर फांसी के फंदे पर झूल चुका है|
गांधीजी को न भुलाना और उनके कार्यों के लिए उन्हें महात्मा मानना गलत नहीं है लेकिन राष्ट्रवाद के प्रणेता नाथूराम गोडसे के बलिदान को न मानना गलत है| देश की मुद्रा के एक पहलू पर गांधीजी की तस्वीर होना हमारे लिए सुखद है परन्तु उसी मुद्रा के दूसरे पहलू पर नाथूराम की तस्वीर न होना कहीं अधिक दुखद भी है| सोचकर अच्छा लगता है कि अगर हमारे देश के नोटों पर एक तरफ नाथूराम की तस्वीर भी लगी होती हो कितना अच्छा सन्देश होता कितना सुखद साम्य होता देश की मानवता और राष्ट्रवाद का! क्या देश में राष्ट्र-विहीन मानवता अधूरी नहीं है? क्या मानवता-विहीन राष्ट्र किसी राष्ट्रवादी की कल्पना हो सकता है?
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