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जुवेनाइल: किशोर या छिछोर

चातक
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हत्या के मामले में जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में उतने अधिक संशोधन की आवश्यकता नहीं है जितनी बलात्कार, सामूहिक बलात्कार और उसके पश्चात् हत्या करने के मामलों में| तेरह वर्ष की उम्र पूरी करते करते कोई भी किशोर ऐसी शारीरिक और मानसिक स्थिति में होता है कि सही-गलत, नैतिक-अनैतिक इत्यादि बातें अच्छी तरह से समझने लगता है यही कारण है कि उसे जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में छिपा अपना हित और उसके द्वारा किया गया अपराध दोनों अच्छी तरह से पता होता है| हत्या जैसे मामले में किशोरावस्था का तूफानी मानसिक संवेग भी विचारणीय है लेकिन तब जबकि हत्या अचानक उत्पन्न हुए किसी मनोभाव के कारण की गई हो| परन्तु बलात्कार कभी भी अचानक उत्पन्न हुए किसी मनोभाव का कारण नहीं होता, ये एक ऐसी प्रताड़ना है जिसे बिना सोचे समझे, और बिना वयस्क शारीरिक और मानसिक स्थिति के किया ही नहीं जा सकता इसलिए इन मामलों में जुवेनाइल जस्टिस एक्ट का लाभ देकर आज तक न जाने कितनी लडकियों/महिलाओं को नारकीय कष्ट, जिल्लत की जिंदगी और क्षोभ से भरी मृत्यु भुगतने पर विवश किया है| आज एक मौका शासन और न्याय व्यवस्था को भी मिला है कि वे लम्बे समय से एक विवेकहीन और लैंगिक पक्षपात वाले कानून की आड़ में अपने द्वारा किये गए अन्याय का पश्चाताप करें और एक ऐसा सख्त कानून बनायें जिससे प्राकृतिक और सामाजिक न्याय की पुनर्स्थापना हो, एक बार फिर से न्याय और संसदीय व्यवस्था में लोगों की आस्था बलवती हो|
जुवेनाइल कानून एक अच्छी सोच की उत्पत्ति था लेकिन वो कानून तब बनाया गया था जब भारत जैसे देश पर न तो पाश्चात्य संस्कृति हावी थी और न ही मीडिया की नंगई| इसे लाने के पीछे एक मात्र कारण था उस समय सबसे बुरे किस्म के लोगों में भी अपने बच्चों को अच्छा बनाने की ललक जिससे लगभग १८ वर्ष की उम्र तक के लड़कों को शातिर अपराधी मस्तिष्क मिल पाना दुर्लभ संयोग या कुसंगति ही हो सकती थी| उस समय न तो समाचार के नाम पर स्त्री देह का व्यापार होता था और न ही मूवी इत्यादि में फूहड़ता की गुंजायश थी| ऐसे में किशोरों के द्वारा जो दुर्लभ अपराध होते थे वे सिर्फ इसलिए कि या तो उनके किसी सगे सम्बन्धी के साथ कोई अत्याचार होता था या फिर किसी प्रौढ़ व्यक्ति का सोचा समझा माइंड-वाश, और परिणाम अधिकतर हत्या और हत्या की कोशिश जैसे अपराध ही थे| लैंगिक अपराध तो गिनती की भी नहीं थे| प्रशंसा करनी होगी उन लोगों की जिन्होंने समय रहते उन किशोरों को एक अच्छा कानून देकर समाज में उनकी सार्थक वापसी का रास्ता खोला और साथ ही उन अपराधियों के विरुद्ध भावनात्मक सुरक्षा भी जो किशोरों को या उनके संबंधियों को लाचार मानकर अत्याचार करते थे|
परन्तु वर्तमान परिवेश में वह सुरक्षा छूट जो किशोरों को मिली थी, अब महिलाओं को चाहिए, क्योंकि अब भारतीय समझ संस्कृति-विहीन समाज के रूप में स्त्रियों के लिए चुनौती बना खड़ा है| एक ओर उन्हें बाजार का प्रोडक्ट बना कर खड़ा कर दिया गया है जिसमे उन्हें स्वयं अपने जिस्म की नुमाइश करके पैसा कमाना सबसे आसान लगता है तो दूसरी तरफ उस प्रोडक्ट का साइड इफ़ेक्ट समाज के हर तबके की महिलाओं को फब्तियों से लेकर सामूहिक बलात्कार तक झेलकर चुकाना है| हलाकि इसमें स्त्री स्वयं से कहीं भी किसी भी स्तर पर जरा सी भी जिम्मेदार नहीं है, ये पूरा खेल उन कुत्सित राजनीतिज्ञों, मीडिया, फिल्मकारों, छद्म दार्शनिको, समाज-शास्त्रियों और सफेदपोशों का है जो हर स्तर पर हर जगह पर स्त्री को सिर्फ और सिर्फ एक बाजारू प्रोडक्ट के रूप में देखते हैं और उसे आधुनिकता के या स्त्री सशक्तिकरण के लिफ़ाफ़े में लपेटकर इस तरह पेश करते हैं जैसे इससे बढ़कर स्त्री हित कोई दूसरा नहीं हो सकता|
मुझे यहाँ पर किंग आर्थर का एक वाक्य याद आता है-
“Old order changeth, yielding place to new;
Lest one good custom should corrupt the world.”
स्पष्ट है कि हर एक रीति, रिवाज, कानून, सिद्धांत चाहे जितना भी अच्छा क्यों न हो एक नियत समय तक ही रहना चाहिए अन्यथा वह पूरी दुनिया को भ्रष्ट कर देगा| आज हमारे देश में जुवेनाइल क़ानून एक वाईल (सड़े हुए) कानून से ज्यादा कुछ नहीं है| इसका कारण भी स्पष्ट है कि समाजशास्त्रियों की अवधारणा (कि बालक की अवस्थाएं सिर्फ पांच होती होती हैं- शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था, और वृद्धावस्था) नवीन परिवेश में सही नही है| यदि आज हम विकास के इस प्रक्रम का सही-सही अवलोकन करें तो किशोरावस्था (जिसके कारण जुवेनाइल कानून का उद्भव हुआ) अब दो भागों में बंट चुकी है जिसे आप किशोरावस्था व् छिछोरावस्था (जैसा कि जीव-विज्ञान के मेरे एक शिक्षक मित्र ने इस अवस्था का नामांकन किया है) के रूप में परिभाषित कर सकते हैं| इस अवस्था का जिक्र भले ही कुछ लोगों को अटपटा लगे लेकिन यही आज हमारे भारतीय समाज और पूरी स्त्री जाति के लिए चुनौती बन गई है| कानून का काम सिर्फ घिसे-पिटे कानून को लागू करना नहीं साथ ही साथ उनकी सार्थकता और प्रभाव का आंकलन करना भी होना चाहिए वर्ना हम बातें चाहे जितनी करें न्याय कभी नही दे पाएंगे| आज जीवित इंसानों पर मुर्दे (मृत कानूनों के मृत निर्माता) निष्कंटक शासन कर रहे हैं और न जाने कब तक ऐसे ही तांडव करते रहेंगे|

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