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उत्तर-प्रदेश को नज़रंदाज़ करके देश की राजनीति को साधने का ख्वाब हिन्दुस्तान में कभी संभव नहीं रहा है| मोदी-शाह की जोड़ी ने जिस कुशलता के साथ इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए २०१४ में ऐतिहासिक विजय दर्ज की इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है, परन्तु केंद्र की सत्ता में रहते हुए मोदी सरकार तभी सफलतापूर्वक और प्रभावी ढंग से कार्य कर सकती है जबकि उत्तर-प्रदेश में भी उसकी सरकार बने| ऐसे में केन्द्रीय नेतृत्व के लिए निरंतर सजगता की उसी पद्धति को अपनाना बेहतर होता जिसने हाल ही में मोदी जी को दिल्ली के तख़्त पर बिठाया है|
प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले केंद्रीय नेतृत्व इसी तर्ज पर काम कर रहा था लेकिन नोटबंदी ने अचानक भाजपा के नेताओं पर ही गाज़ गिरा दी| देखने में सभी को ऐसा लगा जैसे नोटबंदी जैसे बेहतरीन निर्णय का लाभ सीधा भाजपा को और नुकसान विरोधियों को होगा| यहीं पर मोदी और शाह की जोड़ी ने चूक कर दी| भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने सोचा कि चूहे सिर्फ अन्य राजनीतिक दलों में हैं जबकि अपनी पार्टी के बड़े और शातिर चूहों से सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण दिल्ली और बिहार चुनावों में मिली हार से मिल चुका है, परन्तु इससे पार्टी ने कुछ सीख ली हो ऐसा प्रतीत नहीं होता|
उत्तर-प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा का डूबता दिख रहा बेड़ा बरबस ही शेक्सपियर की लिखी एक पंक्ति याद दिलाता है-
Ships are but boards, sailors but men: there be land-rats and water-rats, water-thieves and land-thieves, I mean pirates, and then there is the peril of waters, winds and rocks.
भाजपा संगठन में अधिकार संपन्न पदाधिकारियों ने मोदी-शाह की जोड़ी को आश्वस्त करते हुए गजब की नीति अपनाई क्योंकि उन्हें अपना काला धन किसी भी कीमत पर बचाना या सफ़ेद करना था| ये एक स्वाभाविक सी बात है कि जब बात संगठन बनाम व्यक्तिगत हित (अर्थात अपनी काली या सफ़ेद संपत्ति) की हो तो व्यक्ति अपनी संपत्ति को किसी भी कीमत पर बचाता है| सो पार्टी पदाधिकारियों ने शाह को विश्वास में लेकर टिकट बेचे वो भी इतनी सफाई और ईमानदारी से कि सिद्ध करना मुश्किल हो जाए कि किसी अलोकप्रिय अथवा पार्टी के प्रति कभी ईमानदार न रहने वाले लोगों को क्यों टिकट दिये गए हैं| भाजपा के घोषित प्रत्याशियों में बड़ी संख्या उन धनपशुओं की है जो बड़ी मात्रा में काला धन सफ़ेद करने में माहिर हैं, प्रत्याशियों की सूची में उन लोगों को स्थान मिला है जिनके पास होटल, स्कूल, कालेज और महाविद्यालयों की श्रृंखला है स्पष्ट है कि इन लोगों ने पार्टी पदाधिकारियों को नोटबंदी के मुश्किल समय में अप्रतिम सेवाएँ अर्पित की हैं| परिणाम जो भी हों परन्तु अच्छी खासी पूँजी और सेवा करके टिकट पाने वाले प्रत्याशी यदि जीत भी गए तो उत्तर-प्रदेश की जनता को उन सेवाओं का खामियाजा भीषण नोच-खसोट, भ्रष्टाचार और कुशासन से चुकाना पड़ेगा| भाजपा तो गर्त में जाएगी ही क्योंकि भ्रष्टाचार की फसल जब विधानसभा में जाएगी तो चाल, चरित्र और चेहरा वाली पार्टी के वजूद पर दागों के सिवाय कुछ दिखेगा इस पर मुझे संदेह है|
चौंकाने वाली बात ये हैं कि वर्तमान राजनीति के सबसे बड़े चाणक्य अमित शाह को आखिर पार्टी नेताओं ने कैसे शह दी जो मोदी जी प्रदेश में चुनाव से पहले मात खाते दिख रहे हैं? यहाँ पर शीर्ष नेतृत्व वास्तव में धोखा खा गया या फिर उत्तर-प्रदेश के शातिर पदाधिकारियों ने शाह-मोदी की जोड़ी को पार्टी के अन्दर ही अप्रत्याशित पटकनी दे दी? इन प्रश्नों के उत्तर तो प्रदेश में चुनावों के बाद समीक्षा बताएगी, फिलहाल इतना ही |
वन्देमातरम !
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