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आखिरकार मेरी वर्षों की मेहनत रंग लाइ और मैंने विज्ञान की दुनिया के सबसे बड़े सपने को साकार कर दिखाया! टाइम मशीन उपन्यासों, कल्पनाओं और ट्रिक मूवी से बाहर निकल कर मेरे सामने एक ठोस हकीकत के रूप में खड़ी थी| मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था लेकिन इस मशीन के बनने की सूचना किसी को देने से पहले मुझे अपने आप से किया गया वादा पूरा करना था | उस वन-सीटर स्कूटर की तरह दिखने वाली मशीन की सीट पर बैठते ही पूरी मशीन एक कांच से पारदर्शी आवरण में किसी शंकु की शक्ल में बदल गई बाहर से चांदी की तरह दिखने वाले इस आदमकद शंकु के अन्दर क्या हो रहा था किसी को कुछ पता नहीं | मेरी उँगलियों ने सीट के सामने अर्धचन्द्राकार डैशबोर्ड पर बिखरे दर्जनों कुंजियों से खेलना शुरू कर दिया | सामने की शंक्वाकार चांदी सी दिखने वाली दीवार पर मानो किसी ने बहुत सारे गाढे रगों का बर्तन उलट दिया हो फिर धीरे-धीरे एक आयताकार घेरे में एक पेंसिल की आकृति लपलापाई इसीके साथ मेरी उँगलियों ने हरकत की और सामने उभरा २३ मार्च १९३१ | पलक झपकने भर का वक्त भी न लगा होगा की घेरे में टिमटिमाया ‘मिशन सफल’ मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा | मैंने कुछ और बटन दबाए और अपने आप को फिर उसी वन-सीटर स्कूटर की तरह दिखने वाली मशीन पर एक खंडहर से दिखने वाले घर की दालान में पाया | मशीन से उतर कर मैं कुछ दूर गया और अपने बाएं हाथ के अंगूठे और तर्जनी को कैरम का स्ट्राइकर चलाने वाली मुद्रा में झटका दिया | इसी के साथ टाइम मशीन मानो कमल की कली की भाँती फिर से शंकु बन गई | निश्चिंत होकर मैं आगे बढ़ा | थोड़ी दूर पर सीढियां नीचे की ओर जाती दिखीं मैं उस तहखाने से दिखने वाली सीढ़ी पर चलता हुआ नीचे पहुंचा जहाँ एक लगभग वर्गाकार कक्ष में से तीन सुरंगनुमा रास्ते अलग-अलग दिशाओं में जाते थे | प्रत्येक के ऊपर लकड़ी के आयताकार तख्तों में कुछ संख्याएं लिखी नज़र आईं | बाएं तरफ जाने वाले गलियारे पर लिखा था ‘६०-८५’ मैं उसी सुरंगनुमा गलियारे में दाखिल हुआ दिन में भी वहां आमने सामने की दीवारों में लगे लोहे के कब्जों में थमी मशाल जल रही थी | गलियारा पार करके मैं एक खुली दालान में पहुँच गया दायीं तरफ पंक्तिबद्ध कोठरियां थीं जिनमे कैदी बैठे आपस में कुछ बात कर रहे थे | किसी की भी नज़र मेरी और नहीं थी सामने से आते लाल जरीदार टोपी वाले रक्षक को देखकर मैंने एक खम्भे की आड़ ले ली | रक्षक मेरे ठीक बगल से कुछ बुदबुदाते निकला उसने मानो वहां मेरी उपस्थिति का संज्ञान ही नहीं लिया | उसके जाते ही मैंने तेज़ क़दमों से गलियारा लगभग पार करते हुए एक कमरे में प्रवेश किया| खुशकिस्मती से कक्ष में कोई नहीं था | सामे की दीवार पर खूंटियों में तंगी तमाम चाबियों में से एक एक मैंने उठा कर अपनी जेब में डाली और फिर से उसी गलियारे में बनी कोठरी नंबर ७१ के सामने पहुंचा | आस-पास कोई नहीं दिखा अन्दर तीन नवयुवक् जिनकी उम्र २८ से ३० वर्ष के बीच थी, घेरा बनाए आपस में कुछ बातें करने में मशगूल थे | उनका ध्यान मेरी और तब गया जब उन्होंने सलाखों वाले दरवाजे को खुलते देखा| कमरे में बने तीन लगातार रोशनदानो से हलकी-हलकी रौशनी आ रही थी | मेरी पदचाप सुनकर एक ने कहा ‘कौन?’ जबकि दूसरे की आँखें मुझे टटोलने में व्यस्त थीं | अब मुझे अहसास हुआ कि अतीत में पहुँचने के साथ मेरा शरीर और वस्त्र दोनों का अस्तित्व सिर्फ आभासी रेखाओं तक ही सीमित था जिसे देख पाना बहुत आसान नहीं था|
‘चातक, आज़ाद हिंदुस्तान, २०१० ‘ मैं किसी मशीन की तरह बोला | लुंगी पहने युवक ने कहा ‘समय-यात्री! अद्भुत! क्या सचमुच?’ उन्होंने मानों मेरी आँखों से जानना चाहा | इतनी देर में मेरा पूरा एक्स-रे कर चुके युवक ने कहा ‘भगत, ये सही कह रहा प्रतीत होता है इसकी पोशाक और हाव-भाव इस युग के नहीं लगते |’
‘आओ समय यात्री, आजाद हिन्दुस्तान से लाई गई कुछ मिटटी या हवा तो होगी तुम्हारे पास, आओ हम भी उसे महसूस करें राजगुरु|’ कहते हुए उन्होंने थोड़ी सी जगह बनाई और बैठने का ईशारा किया | ‘आजाद हिन्दुस्तान से आने वाले समय यात्री काश कि तुम हमारे इस जेल में आने से पहले आये होते तो हम जी भर के तुम्हारा स्वागत करते| कल तो हमें खुद ही इस दुनिया से रुखसत होना है| एक ख़ुशी की बात है कि तुम्हारे आने से हम आश्वस्त हुए कि जल्द ही हमारा देश गुलामी की जंजीरों से मुक्त हो जाएगा, हमारी कुर्बानी जल्दी रंग लाने वाली है |’ सुखदेव ने कहा |
‘समय कम है, आपलोग जल्दी मेरे साथ चलें मैं आपको आज़ादी की ६३वीं वर्षगाँठ दिखाना चाहता हूँ |’ मैंने सुखदेव से कहा |
‘लेकिन यहाँ से निकलना बच्चों का खेल नहीं | तुम तो मुश्किल से दिखाई देते हो लेकिन हम साफ़ नज़र आते हैं |’ राजगुरु ने शंका जताई |
‘अभी हमारे पास तीन घंटे हैं क्योकि चाबियाँ लाते समय मैंने जेलर और रक्षकों के भोजन में इतनी नींद की गोलियां डाल दी हैं की कम से कम ३ से ५ घंटे इस जेल का कोई भी मुलाजिम करवट भी नहीं बदलने वाला |’ मैंने कहते हुए भगत सिंह की शर्ट खूँटी से उतार कर उनकी और बढ़ाई |
तीनो जांबाजों ने एक-दुसरे की और देखा और पलक झपकते हम चारों तेज़ क़दमों से उसी रास्ते लौटते हुए टाइम मशीन के पास पहुंचे | मैंने बिना समय गवांये अपने दोनों तर्जनियों को आपस में मिलाया और और उन्हें v की आकृति में खोलता चला गया | इसी के साथ टाइम मशीन फिर से वन सीटर स्कूटर कर रूप ले चुकी थी | सीट पर बैठ कर मैंने सामने लगा लीवर अपनी और खींचा और मेरी सीट से जुडी दो-दो सीटें मेरे दायें और बाएं ओर किसी पक्षी के डैनों की तरह खुल गई | भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव अब मेरे साथ थे मैंने प्रक्रिया को दोहराया और मशीन फिर से एक आदमकद शंकु में परिवर्तित हो गई | मेरी उंगलिया एक बार फिर सामने बनी कुंजियों से टकराईं | स्क्रीन पर उभरा ‘१४ अगस्त २०१०, अलीगढ’ | कुछ पल तक रंग-बिरंगी किरणों ने नर्तन किया और फिर एक सन्देश उभरा ‘मिशन सफल’ | हम बाहर आये और देखा हम एक रेलवे ट्रैक से कुछ दूर एक खलिहान में खड़े हैं | मैंने गौर किया भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शरीर पर समय का कोई प्रभाव नहीं था मैं अपने वास्तविक रूप को पा चुका था | मैंने एक और इशारा किया और हम चारों रेलवे ट्रैक के साथ-साथ चलने लगे | ‘आज स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या है लेकिन अलीगढ में कुछेक किसानो के लिए विपदा की घडी, वे सरकार से अपनी अधिग्रहित भूमि के बदले जायज मुआवजे की मांग कर रहे हैं | सरकारी कारिंदे, भारतीय पुलिस और प्रेस सारे मौजूद है | यहाँ की गतिविधियाँ देखकर आप सहज ही स्वराज और बरतानिया हुकूमत के अंतर का अंदाजा लगा लेंगे| ‘
मेरी बात पूरी होते-होते हम एक किसानो के जत्थे के काफी पास पहुँच गए | इस भीड़ में ज्यादातर लोग ढीले-ढाले सफ़ेद (कुछ साफ़ तो कुछ बहुत मैले) कपडे पहन रखे थे | पुरुषों ने धोती-कुरता, पाजामा-कुरता या सिर्फ बनयान पहन रखी थी कुछ के सर पर तो कुछ के कन्धों पर गमछे थे जिसमे वे बार-बार पसीना पोछते और फिर नारे लगाने लगते थे | भीड़ में ख़ासा हिस्सा महिलाओं और बच्चों का भी था जो पुरुषो के साथ-साथ नारे भी लगा रहे थे और उनका उत्साहवर्धन भी कर रहे थे | दूसरी तरफ फक सफ़ेद शर्ट और बेहतरीन डेनिम पैंट्स में कुछ आला अफसर खड़े थे जिन्हें खाकी रंग ने ऐसे अर्धचन्द्राकार घेर रखा था मानो किसी अंग्रेज गवर्नर को सुरक्षा देने के लिए गोरों की फौज मुस्तैद हो | रंग का फर्क नज़रंदाज़ कर दिया जाए तो आँखों में उन किसानो के लिए जो घृणा थी वो किसी भी गोरे सिपाही से अधिक थी |
मुझे उन तीनो क्रांतिकारियों को कुछ बताना नहीं पड़ा | नारे सुनते ही वे किसानो की मांग और व्यथा दोनों समझ चुके थे बस नहीं समझ पा रहे थे तो अफसरों और खाकी वर्दी वालों के भाव | वे बड़े गौर से इस आन्दोलन को देखते हुए आगे बढे |
तब तक नारे लगते किसान, महिलायें और बच्चों ने आगे बढ़ने की कोशिश की जिससे खाकी से घिरे अफसरों और भीड़ की दूरी महज कुछ गज ही रह गई | हडबडा कर अफसर पीछे हटे और आनन्-फानन में एक जोरदार आवाज़ गूंजी ‘पीछे हटाओ! दूर करो! चार्ज!’ आवाज़ का गूंजना था कि एक पुलिस वाले की बन्दूक गरजी, एक शोला लपका और सामने खड़े १२-१३ साल के बच्चे के सीने में समा गया | एक ह्रदयविदारक चीख गूंजी | मैंने देखा वो चीख बच्चे की नहीं मेरे ठीक बगल खड़े भगत सिंह की थी | मेरे कुछ समझ पाने से पहले तीनो जांबाज़ भीड़ की तरफ छलांग लगा चुके थे सुखदेव के हाथों में बच्चा था जबकि राजगुरु की बाहें उस पुलिस वाले की गरदन से लिपट चुकी थीं, कायर के हाथ से बन्दूक छूट चुकी थी और वो अपने आपको राजगुरु के हाथों से छुड़ाने की कोशिश में होश खोता जा रहा था | इतने में कुछ और बंदूकें गरजीं कुछ और किसानों ने जमीन ले ली किसानो का खून एक बार फिर भारत माता की मांग भरने लगा | भगत सिंह ने पास खड़े दो पुलिस वालों पर ताबड़तोड़ प्रहार शुरू कर दिए दो पल भी तो नही लगा उन्हें होश खोने में | किसान आक्रोशित होकर आगे बढे तो सारे अफसर और पुलिस वाले पास खडी तीन चार गाड़ियों की तरफ लपके | अब तक तीनो क्रांतिकारियों को होश आया कि वे सिर्फ समय यात्री है भगत सिंह ने इशारा किया | सुखदेव ने बच्चे को कंधे पर लादा और तीनो तेजी से पास एक बड़ी झाडी की और लपके मैंने भी उनका अनुसरण किया | झाडी में पहुंचकर राजगुरु बोले ‘चातक आस पास कोई अस्पताल या डाक्टर मिलेगा ?’ बच्चे ने जोर की हिचकी ली जख्म को दबाये सुखदेव की उँगलियों के बीच से खून बह चला | इस दृश्य को देख कर मैं स्तंभित था लेकिन बच्चे की नाज़ुक हालत और बहता खून जैसे सारे बाँध तोड़ चुका था | तीनो क्रांतिकारी बच्चे को सीने से लगाकर दहाड़ें मार कर बच्चों की तरह रोने लगे |
‘गोली मार दी ! मासूम क्या कर रहा था ? अपने खेतों का मुआवजा ही तो मांग रहा था ! देख सुखदेव, देख दरिन्दे ने गोली मार दी ! क्या गलत कर रहा था ये निहत्था बच्चा ?’ भगत सिंह ने सिसकते हुए कहा | बच्चे ने आखिरी हिचकी ली | तीनो जांबाज एक दुसरे से लिपट कर रो उठे फिर अचानक राजगुरु ने मेरी और देखा ‘ए चातक, क्या यही दिखाने ले कर आया था हमें इस आज़ाद हिन्दुस्तान में ?’ अब तक तीनो अपने आपको संभाल चुके थे | ‘चलो हमें वापस लेकर चलो हमारे वक्त में ताकि हम अपने काम को अंजाम दे सकें | तुम्हे वो आज़ाद हिन्दुस्तान दे सकें जहाँ तुम अपने ही लोगों पर ज़ुल्म कर सको |’ भगत सिंह ने जैसे कोई निर्णय लिया हो | चलते-चलते सुखदेव ने अपने काँधे पर रखा गमछा बच्चे के शव पर डाल दिया और हमारे साथ हो लिए | भगत सिंह सरपट टाइम मशीन की तरफ बढ़ते जा रहे थे और तीनो के चेहरे के भाव तेज़ी से बदलते जा रहे थे मानो तीनो एक ही मस्तिष्क से सोच रहे हों जब हम टाइम मशीन में बैठे तो तीनो के चेहरे पर एक दृढ़ता थी मानो वे किसी निर्णय तक पहुँच चुके हों | न उनमे से कोई बोला न मुझे कुछ कहने की आवश्यकता प्रतीत हुई | मैंने एक बार फिर समय और स्थान सेट किया | जल्दबाजी में मैंने दुबारा वही टाइम डाला इससे पहले कि मशीन जवाब देती भगत सिंह बोल पड़े | गलत समय ! हमें वक्त का सफ़र करते हुए ३ घंटे १२ मिनट ९ सेकेण्ड बीत चुके हैं तुम्हे ये समय पहले वाले समय में जोड़ कर डालना चाहिए | मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ सामने मशीन की स्क्रीन पर भी ‘सामान समय – कृपया परिवर्तन करें अथवा स्वचालित समय नियंत्रण विकल्प चुने’ समय परिवर्तन का वक्त नहीं था मैंने स्वचालित विकल्प को पुश कर दिया | कुछ ही पलों में मशीन फिर उसी खंडहर की दालान में खडी थी | हम वापस ७१ नंबर कोठरी में पहुंचे अभी तक किसी की नींद नहीं टूटी थी |
चारों कोठरी में घेरा बना कर बैठ गए | मैं भगत सिंह के बोलने का इंतज़ार कर रहा था | भगत सिंह ने कहा ‘यारों क्या मैं तुम लोगों की तरफ से भी एक अहम् फैसला लूं ?’ ‘ओय भगत हम १९३१ के हिन्दुस्तानी हैं न यारों के बेईमान हैं न वतन के, तू कुछ बता मत बस फैसला कर’ राजगुरु बोले | भगत सिंह ने मेरी तरफ देखा ‘तुम अपनी कलम और एक कागज़ दो |’ कागज़ और कलम मैंने उनकी और बढ़ा दी | भगत सिंह ने बमुश्किल २ मिनट में उस कागज़ पर कुछ लिखा और मुझे पकडाते हुए बोले, ‘जाते हुए इसे जेलर की मेज पे रख देना |’ मेरी आँखों में सवाल थे जिसे भाप कर बड़े शांत अंदाज़ में भगत सिंह ने कहा- ‘जो दृश्य हमने अपनी आँखों से देखा है अगर हम ज्यादा देर करेंगे तो शायद कल बर्तानिया हुकूमत के अखबारों में लिखा होगा ‘दिल का दौरा पड़ने से तीन बागियों की जेल में मौत’ | शायद तुम्हे बहुत से सवालों का जवाब इस पत्र को पढ़ कर मिल जाएगा | अब तुम जल्दी करो | कोठरी को पहले की तरह बंद करके मैं जेलर के कमरे में पहुंचा | उस ख़त को खोला | लिखा था ‘जेलर साहब, आपके पास सिर्फ चार घंटों का वक्त है हिन्दुस्तानियों ने आपकी जेल के सारे गुप्त रास्ते खोज लिए हैं मेरा ये पत्र आपके लिए चेतावनी है शाम आठ बजे तक इस जेल की एक-एक ईंट हिल चुकी होगी और आपकी नज़रों के सामने सारे कैदी यहाँ से स्वतंत्र हो जायेंगे | जो बन पड़े कर लो | इन्कलाब जिंदाबाद ! भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु |’
पढ़ते हुए मेरा सर चक्कर काटने लगा | किसी तरह मैंने अपने आप को संभाला और पत्र वहाँ छोड़कर टाइम मशीन की तरफ बढ़ा | थोड़ी ही देर में मैं वापस १४ अगस्त २०१० में पहुँच चुका था | घर में पहुँच कर मैंने टी० वी० का स्विच ऑन किया | राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल नक्सलियों से हिंसा का रास्ता छोड़कर बातचीत के जरिये समस्या का हल खोजने की अपील कर रही थीं और नीचे चल रही पट्टी पर लिखा था, “अलीगढ में किसानो पर पुलिस ने गोलिया बरसाई चार की मौत, मरने वालों में एक १२ वर्ष का बच्चा भी था, कुछ पुलिस कर्मियों को भी चोटें आईं, पुलिस का कहना है कि पहले भीड़ ने गोलियां चलाईं|” सारा घटनाक्रम मानो मेरी आँखों के सामने से घूम गया | फिर न जाने क्या सूझा मैंने इतिहास की किताब उठाई और पन्ने पलटता चला गया | इतिहास सचमुच बदल चुका था | अब यहाँ २४ मार्च १९३१ के स्थान पर लिखा था “२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिह तथा इनके दो साथियों सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई ।”
मैं चुपचाप बिस्तर पर जाकर लेट गया, जेहन में अब आज़ादी का मजाक उड़ाते एक और प्रधानमन्त्री के बेशर्म भाषण की गूँज थी जो प्रधानमन्त्री कल सुबह लाल किले की प्राचीर पर खड़े होकर देने वाले थे |
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