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कविता ***** न हरिये अभिव्यक्ति के प्राण *****
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खामोश किताब बिफर बिगड़ बोल पड़ी ,
क्यूँ सिल लू होंठ खामखाह,
काट लू अपनी ही जीभ बेगुनाह,
कर दूँ खून रचना का पाल पोष किया जिसे जवान !
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चाहे आग अंगार झोंक दो कंठ में,
राख लगा चाहे खींच लो मेरी जुबान ,
मेरा हक़ है अभिव्यक्ति,
कैसे छीन लेगा कोइ मुआ स्वान !
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आँखे जो देखेंगी झूठ, सच ,अनर्थ ,मनगढ़ंत
कहेगी बिना लाग लपट के हर हाल समाचार,
कर्म यही के जन जन तक पहुंचे सत्य स्वर ,
खबर करे जन गण मन का जागरण !
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कविता न हारेगी कभी, न मरेगी
अमर अजर है गजल ,
शेर शेर सा ही दहाडेगा सर्वथा,
राज करेगा सबके दिलों पर !
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कवि बावरे मतवारे चन्दन,क्या जाने कानून
गर रंग मुलजिम मुजरिम है , तो चित्रकार गुनाह करेगा जरूर
फूहड़ मनोरोगी विक्षिप्त नहीं ,काले झंडे काले बैनर
चाहते हैं काली करतुते ,हो जाएँ श्वेत निखरकर !
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लेखक पत्रकार हो या गायक नायक निर्देशक
सब वहन करेंगे अभिव्यक्ति धर्म
गीत भाव से, चित्र वृति ,से नृत्य मुद्रा से,
नुक्कड़ ,नाटक ,चलचित्र, सब बनेंगे सामाजिक दर्पण !
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भाषा कोई भी हो शब्द प्रादुर्भाव करेंगे
हो चाहे आग उत्पन्न या फिर खिले फूल
संत आचरण भी सिखाएगा सेवा भाव भी जगायेगा
ठग कहो या सूली चढवा दो इंकलाब भी फैलाएगा !
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अभिव्यक्ति आरक्षण नहीं जम्हूरियत का ,
किसी के बाप की जागीर नहीं,
सनातन मुतालबा है ,
जिन्दा है इससे इन्सनियात !
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साहित्य सृजनता है ,
कला चेतना चराचर की,
है तजबीज न घोटिए गला इसका ,
न हरिये अभिव्यक्ति के प्राण !
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