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“अटठाइस रूपए वाले गरीब”

कलम...
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हम बहुत छोटे लोग है बाबूजी,
फांकते है नाश्ते में सूखे कंठ से खट्टी मीठी हवा,
और दोपहर के भोजन में गम के गुबार फांकते हैं,
शब् गुजरती है जिल्लत की आग पीकर,
खौलती जमीन पर आंसू बिछा के सो जाते हैं,
हम अटठाइस रूपए वाले गरीब हैं बाबूजी,
हम बहुत छोटे लोग है बाबु जी !

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मुफलिसी हमारा ताअरूफ कैफियत हमे अपने औकात की,
नवागत है कौड़ी भी कीमत नहीं हमारी क्षुद्र जात की,
परिताप के कोड़े की पुचकार से पले बढे है,
चुभते है काले अच्छर जो आँखों की कोर्निया थी,
तालीम के अपराध में घुटन की फांसी के वाशिंदे है बाबूजी ,
हम अटठाइस रूपए वाले गरीब हैं बाबूजी,
हम बहुत छोटे लोग है बाबूजी !

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शर्म ही हमारी लक्ष्मी का चीर-दुपट्टा, दीपक-दुकूल है बाबूजी,
पसीना की गिलाई बदन की ठंडक, साँसे सर्दी का अलाव बाबूजी,
नाकामी को सिला करते हैं कोशिशो की सुई से,
पलस्तर कर चुनवा दिया जिस्म में जंहा दर्द पनपता है बाबूजी,
कई दफा टूटे सपने वेल्डिंग के टाँके से जोड़े हैं बाबूजी,
हम अटठाइस रूपए वाले गरीब हैं बाबूजी,
हम बहुत छोटे लोग है बाबूजी !

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हम कषक-कुल्नियों को सहने का गन्दा इल्म है,
लोचनों में इफरात टुटा-फूटा काइयाँ भोलापन हैं,
रोम रोम में बसी है बस हिकारत ही हिकारत,
हम दर्द के तलबगारों की पहचान कमर का छोटापन है,
हम दारिद्र्यता के कोढ़ से गले लोग है बाबूजी,
हम अटठाइस रूपए वाले गरीब हैं बाबूजी,
हम बहुत छोटे लोग है बाबूजी!

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घूमने जाते है बस सपनो में ही मुरादों की सैर,
हमारी परछाईयाँ भी सवर्णों के यंहा नौकर है बाबूजी,
नक्कादों को कहियेगा वक़्त जाया न करे हम फटीचरो पर,
हम तो नाशाद घसियारे बेवजह आबाद है बाबूजी,
उजाला होता हमारी गलियों में झोपडी तलक,
जब कभी नेता कदम यंहा भूल से भटकते है बाबूजी,
हम अटठाइस रूपए वाले गरीब हैं बाबूजी,
हम बहुत छोटे लोग है बाबूजी !

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कंहीं बिकता हो जिस्म तो बतलाइएगा,
हमारी भूख का यही इंतजाम है बाबूजी,
किडनियां बिकवा दीजिएगा तो कर्ज उतार देंगे ,
मूल पाटते पाटते किश्तों में चली गई सारी जवानी,
सूद चुकता करते करते उम्र बाबूजी,
हो सके तो हमे हमारे  हाल पे छोड़ दो बाबूजी,
हम अटठाइस रूपए वाले गरीब हैं बाबूजी,
हम बहुत छोटे लोग है बाबूजी !

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