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“कायर आत्महत्या ”!

कलम...
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जला लो चमड़ियाँ

शौक से भून लो जिस्म,

पर कूड़े सा रख भर ना बूझो !

***

करो आत्मदाह की ,

की लोहा भी पिघले,

आकार ले कल्याण हेतु !

ले जायें जरुरतमंद हाथ,

ये छिटकती रौशनी ,

वहां जहाँ सदियों से अँधेरा है !

***

लटका लो फंदे पर “मै” को,

पर कील पमहज तस्वीर सा ना टंगो !

सारे स्वार्थों को फांसी दो,

इक इक सोच जाग सेवक बन निकले,

आंसू पोछे खुशियाँ बाँटे !

***

भरो शीशी में  सारा अपमान ,

रोज विष का इक-इक घूंट पियो,

की थककर सांप भी उगले मिठाई ,

प्रेमवश मुंह से मीठा हो जाये !

***

तुम पर ऋण कितना बाकी,

बनना था अभी तो तुझको बूढ़े बाप की लाठी,

अभी तो ममता की प्रथम किश्त ना पाटी ,

फिर कैसे कपूत तुने अंतिम लीला रची,

निज प्राण यम के सुपुद्र की !

***

जीकर देखो भविष्य के आँगन में

कितना कुछ है पाने को

कितने मोती किस्मत के बेताब

तुम पर जान लुटाने को ,

अरे ! क्या रोते रोते ही मरना,

जब अनखर्ची मुस्कराहट है लुटाने को!

***

हो शहीद,तुम गौरव बनो,

पर सिर्फ लाश सा न मरो ,

की उल्लू, सियार, गिद्ध, भेड़िया,

सब ये ना कहे भूखे  रहो,

इस मुर्ख निष्टुर कायर ने की थी कभी “आत्महत्या ”!


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