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इक निरुतर अकड़ता हुआ प्रशन !

कलम...
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अमूमन मै साँझ ढलते ढलते , कविमन की सारी पीड़ा व्यथा गढ़ते गढ़ते सो जाता था !. पर जाने क्यूँ पिछले कुछ दिनों से नींद जैसे मुझ से नाराज हो गयी थी !. जो रोज मुझे अपने नर्म आँचल मे लोरियाँ गा गा सुलाती थी , आज जाने क्यूँ देहरी से ही दूर पटक रही थी ! पर यह भी सच है की मैंने अपने कविमन स्वार्थ हेतु अपने ही तन को भूखा रखा था, कई कई घंटो, पहर दर पहर खुद को बेजान बना कर दुःख नगरी की गहरी घाटी मे चला जाता था


जिन्दगी मुझे रोज हराती और मै इतना निकम्मा था की बेशर्म बना रोज उससे लड़ने जाता था , पर शायद पहली दफा मेरा जर जर इसे स्वीकार करने ही वाला था की मैंने प्रभु शरण जाने की सोची , मै अपनी ऊँगली पर वो इक्का दुक्का दिन गिन सकता हूँ , जब शायद मैंने अपने हाथो से आस्तिकता का धुप नेवेद्य जलाया था ,

ख़ैर मै अनमने मन से जगा , स्नान आदि प्रक्रिया से निर्वित हो, स्वयं को एक पुजारी का रूप देने के लिए धोती कुर्ता मे कुछ लपेट सा लिया, पूजा की टोकरी बनाई, उसमे इक माचिस की डिबिया,धुप नेवेद्य , पड़ोस से चोरी से तोड़े गुलाब के फूल सजाये, कपूर और रोली से सजी थाली ले मंदिर की तरफ तेजी से बढ़ चला , यह सोचते हुए जब दवा से काम न हो तो दुआ काम करती है ,
माफ़ कीजिय यह जिक्र करना भूल गया की दुआ कबुलवाने के लिए , जो सुना था वही किया, तपाक से अपनी अंटी मे एक १०० रुपैया का नोट दबा लिया था ,

लम्बे लम्बे डग भरते, उम्मीद भरी आस मे हाफ्ती सांसो से ज्यूं ही मे मंदिर प्रांगन मे पंहुचा ! सामने दिखते उस द्रश्य और शोरगुल को सुन दंग रह गया, मैंने जो सुना था ठीक उसके एकदम विपरीत, यंहा शांति की उपेक्षा बचाओ- बचाओ के मार्मिक स्वर से मंदिर का दिग दिगंत गूंज रहा था! और उसकी अनुगूँज मुझे मानो भीतर तक भेद रही थी ! मेरा कविमन व्यथित हो गया , मै पूजारियो के झुण्ड को चीर जैसे ही उनके बीच पंहुचा तो नीचे पंडितो के निर्दयी पेरो मे इक ८,९ वर्ष का बालक चिपका पड़ा हुआ था , जिसका सारा बदन मैला, धुल मे सना हुआ था , फिर भी श्यामल चेहरा की मासूमियत सूरज सी प्रकाशित हो रही थी,
मुझसे रहा न गया और तत्क्षण उन गुणी सज्जनों से इस निर्दयता का कारण पूछा, प्रत्युतर मे समूह ने एक स्वर मे कहा, “महाराज इस दुष्ट बालक ने प्रभु दानपेटी से 20 रुपैया चुराय है , और हमने इसे उसी क्षण धर दबोचा !
और पूछने पर, झूठ का प्रपंच रचता है की, ” मैंने कोई चोरी नहीं की”! अब आप ही बताये , क्या इसे इसकी उदंडता के लिए प्रताड़ित नहीं किया जाना चाहिय !
इस प्रश्न के प्रभाव मे मैंने भी आव देखा न ताव, अकड़ के झड्कते हुए धड़ाधड शब्दवाण उस बालक की छाती पर जड़ दिए ,” क्यूँ रे चोर तुझे शर्म नहीं आती , चल तेरे माता पिता को बताता हूँ” !

प्रत्युतर मे जब उस नन्हे बच्चे ने मुह खोला, तो  मुझसे अपना चेहरा छुपाते न बना ! मेरा सारा ज्ञान , दंभ वँही छिन्न- भिन्न हो फर्श पर बिखर गया! वो बोला ,” बाबु जी जब भूख लगती है न तो शर्म किसी कोने में दम तोड़ देती है , मै खुद ही अपना माँ-बाप हूँ” !
और मैंने कोई चोरी नहीं की , भूख लगी थी ,यंहा पास से गुजर रहा था, किसी ने बताया , “यंहा भगवान् रहते है , कुछ भी मांगो मना नहीं करते”!
सो, मैंने भगवन के चरणों मै अपना सर झुकाया , और बोला ,” भगवन तीन दिन से अन्न का इक दाना नहीं खाया , बाहर ढाबे पर २० रुपैया मे भर पेट भोजन मिलता , सो २० रुपैया दे दो” !
भगवन मुझसे खुद बोले ,” वत्स २० रुपैया लो और जाओ भोजन ग्रहण करो , यह कहते हुए उस बालक ने अपने नन्हे हाथ मे से वह २० रुपैया का नोट मेरी तरफ बढ़ा दिया ,
और इक अकड़ता हुआ प्रशन किया , “अब आप ही बताओ बाबु जी क्या मैंने चोरी की है ” ,

गीता , वेद, पढने वाले , माथे पर त्रिवेणी चन्दन रचने वाले , सारे सामाजिक ज्ञान के ठेकेदार मेरी तरह इस प्रश्न पर इक दम बुत बन कर खड़े थे ,
और वो बच्चा मुस्कराता हुआ वंहा से हवा की तरह उड़ गया ,
और मेरी वेदना का स्वर कुछ यूँ फूटा !

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” है पड़ा दान क्यूँ मुर्दा सा

ये मंदिर है मरघट नहीं

रोज मरती है जिंदगियां सडको पर

जाओ उन्हें पहले जिन्दा करो ” !

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