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“लावारिश लाश”

कलम...
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मन धडकनों के नगाड़े बजा रहा था , जाने डाक्टर साहब ब्लड टेस्ट की क्या रिपोर्ट बताएं ? खैर सांसों पर लगाम लगाये जैसे ही मैंने पूछना चाहा, उससे पहले ही डाक्टर साहब ने बोला भरी जवानी में ये रोग तो संभव नहीं ! ये सुनते ही सारे आंसू इकदम तैनात हो गए बलिदान देने को ,

फिर भी मैंने दिल पर पहाड़ रख पूछ लिया तो डाक्टर साहब बोले :,”भाई तुमे किसी व्यंग के कीड़े ने काट लिया और ये लाइलाज बिमारी है ,और बड़े भारी मन से मै रास्ते की ऊँगली पकड़  अपने घर को चल दिया !

तभी रास्ते मे पड़ने वाली झुग्गिओं के नेहरुओं की गोल गोल भीड़ देखी, तो मन ने ख्यालो के लड्डू फोड़ खाने शुरू कर दिए , मन हजारी हो गया ,

इक मन कहता भाई जरुर जमूरे-चूरघुश्डू का जादुई खेल होगा, दूजा मन बोला,”नहीं यार रामप्यारी  बंदरिया को मनाने मदारी आया होगा  रामप्यारे बन्दर को लेकर ! तीजा मन बोला : नहीं मित्र लग गई तुम्हारी चांदी ,साँप-केंचुली के मुफ्त दर्शन ! मुफ्त केंचुली रखो किताब मे और ज्ञान बढाओं!

तभी दिमाग ने अडंगी लगाते हुए बोला अबे ओ !  शेखचिल्ली ,मुल्ला नसीरुद्दीन, गोनू  झा पहले जाकर देख तो ले !,अब इतना जलील होने के बाद तो भइया , आत्मा पानी-पानी हो जाए ! तो मेरी क्या औकात ?

तो जैसे ही हमने नहर की परिक्रमा की तो, नजारा कुछ और निकला , नहर में इक लावारिश लाश, बड़े ही ऐशो आराम से परनाले की  गलीज  पर बिस्तर लगाये आराम फरमा रही थी !

अपने  जीवनकाल में जो कुछ विशिष्ट उपलब्धियां मैंने हासिल की है जैसे बालिग़ होने पर ही लौहपथगामिनी में प्रथम प्रवेश, यौवन में ब्रह्मचर्य का रसपान  इत्यादि ,उनमे ये लावारिश लाश के दर्शन सबसे ऊपर रेंकिंग पे जा विराजमान हो गया !

तभी कानाफुसिओं ने मेरे कान पर धावा बोल दिया, जितने मुंह, उतनी बाते !

इक मुँह  : भाई ये लाश तो बड़ी मोटी ताजा है, किसी रईसजादे की लगती है !

दूसरा मुँह  :(अपनी अक्लियत का परिचय देते हुए ) अरे नहीं ये तो ! इसके कुम्भकर्णीये नींद और आलस का नतीजा है,

तीसरा मुँह  : पर इसे क्या जरुरत पड़ी थी, हमारे घर के पास आकर डेरा ज़माने की ?

चौथा मुँह  : (सज्जन जान पड़ता था) अरे मित्र जब ये हमारे आँगन आ गया तो क्यूँ न ! इसका सुन्दर स्वागत किया जाए !

और लल्लू को कलुआ ढोलक वाले को बुलावा लाने  भेज दिया !

पांचवा मुँह : (लाश के पास जाते हुए ) अरे देखो , इसके हाथ पे गुदा है “कविराय फरीदाबादी “!

तभी छठा मुँह बोला  ( जो खुद भी इक कवि था ) : (जिसे कभी अपने हुनर दिखाने को मौका नहीं मिला था) अरे ये तो कोई विद्वान कवि मालुम पड़ते है , क्यूँ न यंही इक कवि सम्मलेन आयोजित किया जाए ,और वँही मौके की नजाकत

देखते हुए अवसरवादी रूप ले लिया ,और अपनी कविता का पाठ करने लगा :


दस्तूरे जिन्दगी भी खूब है ,

मौत से मुहब्बत है भी, और नहीं भी !

तमाम उम्र गुजार दी मैंने उसकी दीद को,

उसको मुझसे वास्ता है भी और नहीं भी !

आज तो जैसे उन महानुभाव कवि की निकल पड़ी, तालिओ के गडगडाहट गूंज गई , माहोल शायराना हो गया , सब अँधेरे लगे,उजाले बनने !

ये देख सांतवा मुँह : ( जो समाजसेवी होने का दंभ भरता था और राजनेता बनने को प्रयासरत था) देखीय ये क़ानूनी मामला है ,हमे इसे इसके घर रिश्तेदारों के पास भेजना होगा और लगा  अपनी राजनेतिक  नीव तलाशने  !

और अपना विलायती फोन निकाल, लगे दरोगा जी सितम सिंह को मिलाने , पर उनके फोन में बैठी रूपमती बोली,”डान को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है” !  उनकी तो जैसे गुगली हो गई !

और फिर कुछ सोचकर बोले : कुछ मित्र मेरे साथ चलिए दरोगा जी को बुला  लाते है ! उनके पास लम्बी सी गाडी थी,सायद इसलिए ,अपने-अपने सपने पूरा करने के मकसद से पूरी की पूरी जनता टूट पड़ी उनकी गाडी की तरफ !

पर ये देख उस राजनेतिक मुँह ने पैदल मार्च का फरमान सूना दिया और हम पैदल नहर मार्च करते पहुंचे  दरोगा जी के पास , जो उस समय जलेबियों पर जुल्म ढा रहे थे !दरोगा जी : क्या बात है ! इतनी भीड़ किसलिए ?

सांतवा मुँह : ( हाथ जोड़े नेता वाले मुद्रा में )  जनाब हमारे यंहा इक लावारिश लाश अपना पता भटक गई है ,कृपा उसका मार्गदर्शन करें !

ये सुन दरोगा जी का गुलाबी बदन इकदम पीला पड़ गया !

तभी मेरे दिल के अन्दर का  कोतुहल बोला भाई पूछ ले ,: आप तो रंग बदलने वाले मालुम पड़ते हैं , पर उनके “सेवामुनि बांसबाबा” की चढ़ी त्योरिओं को  देख साहस न जुटा पाया !

दरोगा जी ज्ञान मुद्रा में ही बोले : देखिये हम आप की कोई मदद नहीं कर सकते, क्यूंकि लाश ने जिस जगह डेरा बसाया है वो हमारे कर्मक्षेत्र से इक बित्ता ( बिलांत ) बाहर है ,या तो आप लाश को कहिये की वो उठकर हमारे क्षेत्र में आ जाए ,हम उसकी सेवा में तैयार हैं !

तभी आठवाँ मुँह : (  राजनेतिक मुँह को बगल में ले जाते हुए ) , आप व्यर्थ मे इन सरकारी अफसरों के चक्कर मे पड़ रहे हैं ,मै चैनी चोचले तांत्रिक को जानता हूँ , जो अपनी तंत्रशक्ति से मुर्दों  मे भी जान फुकने का माद्दा रखता है , और उसकी पेशगी भी चार आना है ,

और ज्ञानी अंदाज मे बोला,” हींग लगे ना फिटकरी, रंग भी चोखा होए”!

तभी नवा मुँह बोला : ( जो सायद किसी धार्मिक गुरु का भक्त था ) लगे हाथ ! मेरे गुरु श्री चमचम लालगुलाटी महाराज का समागम भी करवा दीजियेगा ,बड़ा पुण्य मिलेगा!

और सब के सब चल दिए वापिस उसी  “लावारिश लाश” नहर के पास ,कोई ढोल -ताशे, गाजे-बाजे लिए खड़ा था , तो कोई कविता पाठ कर रहा था , कोई लगा था अपने सगे-सम्बन्धी  को बुलाने ,आज जैसे बच्चों को छुट्टी का नया बहाना मिल गया था ,सब व्यापारी,दुकानदार, अपने अपने काम धंधे को ताला मार तमाशा देखने उसी और आ रहे थे ,  बाबाओं और तांत्रिकों की भीड़ भी  उसी और बढ़ आ रही थी !

पर ये क्या ! वो “लावारिश लाश” वंहा से गायब थी !

सायद इस अवसरवादी समाज और कामचोर तंत्र की बेरुखी देख नहर ने उसे दुसरे नए किनारे की और बढ़ा दिया था ,सायद उस  नहर और “लावारिश लाश” ने आज फिर इस भ्रष्टतंत्र से कोई नाजायज उम्मीद का पाप कर लिया था !


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