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कृषि नीतियों से राजनितिक मोहभंग

मेरा पन्ना
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हर साल की तरह इस साल भी उत्तर प्रदेश मे गन्ने को लेकर राजनिती गर्म है । चीनी मीलों को चलाने की तमाम कोशिशें नाकाफी हो रही हैं | ऋण मे डुबे एक किसान ने आत्महत्या कर ली जिसके बारे मे दुसरा तथ्य यह था कि उसके स्वयं का चीनी मिल पर गन्ने का बकाया था ।
भारत मे किसानों के आत्महत्या करने की खबरें आती रहती हैं । भारत गाँवो का देश है और इसकी आत्मा इन्ही गाँवो मे बसती है । जब कभी भी ग्रामीण भारत के निर्माण की बात आती है तो इसके केन्द्र मे किसान ही होते हैं । तमाम योजनाएं इसलिए बनती हैं कि कृषि को बढ़ावा मिले तथा किसानों का जीवन स्तर ऊँचा हो । सरकारें बुन्देलखण्ड जैसे कुछ विशेष क्षेत्रों के लिए भारी-भरकम वित्तिय बजट जारी करती हैं लेकिन फिर भी स्थिति जस की तस बनी रहती है । स्पष्ट है कि नितियों को इमानदारी से क्रियान्वित नही किया जा रहा ।
बस उर्वरक की ही बात करें तो सरकारी क्षेत्र के घरेलू उर्वरक सयंत्रो में उत्पादन बन्द होने से विदेशों से महंगे उर्वरकों का आयात करना पड़ रहा है जिनकी कीमत बाजार में पिछले कुछ सालों कई गुना बढ़ी है और उस पर भी समय पर इनकी अनुपलब्धता से किसानों को जमाखोरों से और भी महँगे दामों पर खरिदने को विवश होना पड़ता है । सरकार अगर घरेलु उत्पादन को बढ़ावा देती तो इसके कई फायदे होते जैसे कि इनकी उपलब्धता हर समय बनी रहती और दाम भी कम होता रोजगार के दरवाजे भी खुलते | लेकिन सरकार कि नीतियां आयात पर ज्यादा निर्भर हैं | महँगे होते डीजल ने आग मे घी का काम किया है जिससे कि खेतों की सिंचाई , जुताई और फसल की ढुलाई भी महँगी हो गई है । इन सबसे खेती की लागत बढ़ी है ।
खेती मे लागत के बढ़ने से परेशान किसान महँगाई के सामने झुकता जा रहा है और इस स्थिति मे एक मात्र उम्मीद उसकी फसल होती है जिसके नाम पर किसान ऋण लेता है । सरकारी योजनाओं की सुस्ती तथा उनमे भी भ्रष्टाचार से किसानो की मुश्किलें बढ़ी हैं । सरकारी ऋण की उचित उपलब्धता न होने से किसान साहुकारों से ऋण लेने को विवश होता है । अब अगर मानसून अच्छा बना तो फसल अच्छी हो जाएगी जिससे कि किसान ऋण चुकाने की स्थिति मे होंगे अन्यथा खराब मानसून तथा आपदाओं के चपेट मे आकर फसल नष्ट हो जाएगी । ऐसे मे पहले से ही कर्ज मे डुबे किसान की मुश्किलें बढ़नी तय है । अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वह पुन: कर्ज लेने को विवश होगा , जिससे कि उस पर कर्ज की दोहरी मार पड़ेगी और किसान कि अवस्था दयनीय होती जाएगी ।
अपनी खाद्य सुरक्षा जैसे बड़ी परियोजनाओं के लिए सरकार को कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर रहना है | चालू वित्त वर्ष (2013-14) की दुसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) के जारी जीडीपी के आँकड़े अर्थव्यवस्था मे कृषि क्षेत्र की उपयोगिता को दर्शाते हैं जिसने इस बार सरकारी उपेक्षा के बावजूद भी अर्थव्यवस्था के लिए आक्सीजन का काम किया और अर्थवयवस्था को वेंटिलेटर पर जाने से बचा लिया । हालाँकि कृषि क्षेत्र के इस योगदान का कारण अच्छा मानसून रहा । लेकिन फिर भी सरकार इस तथ्य से कुछ सीखेगी इसमें संदेह है |
वर्त्तमान में छाया गन्ने का संकट राजनितिक उदासीनता का ही नतीजा है जिससे कि अगली फसल के पिछड़ने के भय से किसान अपनी खड़ी फसल में आग लगाने को विवश हैं |

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