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एक बार शहर मे
हुआ बेरोजगारों का सम्मेलन
दूर-दूर से आए विद्वानो का
हुआ बहुत ही दुखद मिलन ।
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सम्मेलन के अध्यक्ष बने
इन्जीनियर वियोगी दास
बढ़ी दाढ़ी , मैले कपड़े
और जो रहते सदा उदास ।
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उनका भाषण जब शुरु हुआ
नेत्रों से बही अश्रुधार
कहा पढ़ाई की खातिर
हुआ मै कितनो का कर्जदार ।
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घर-द्वार सब बन्धक पड़ा
सूना हुआ सब संसार
माँ-बाप के सपनो को भी
कर न सका मै साकार ।
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कर न सका साकार
हर पल यही सोचता रहता हूं
महँगाई के मार से भी
डरा सहमा रहता हूं ।
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आई बारी एक सज्जन की
बोले खूब गला फाड़
काम धाम मे मन नही
निक्कमी है यह सरकार ।
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निक्कमी है सरकार
बस वादे पर वादा करती है
नौकरियाँ निकालती , उन्हे अटकाती
आवेदन के पैसे मोटे गाँठती है ।
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खड़े हुए अब कवि धनपत
थे वो सुख से अनजान
टूटी चप्पल , फटी कमीज
ए थी जिनकी पहचान ।
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एम0ए0 की, की पीएच0डी0
कर लीं सब परिक्षाएं पास
पर रोजगार की बात जब आई
आया न मै किसी को रास ।
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मेरी कविताओं को भी
कोई छापता नहीं
कहते सब इस महँगाई मे
कोई इन्हे पढ़ता ही नहीं ।
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एक तो यह बेरोजगारी
ऊपर महँगाई की लात भारी
सुबह-शाम खटकती है
लोगों की भी तानामारी ।
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सभा के अन्त मे
उठा एक महत्वपुर्ण विचार
आज के इस दशा का
क्या नीतियाँ नही हैं जिम्मेदार ?
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