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हंगामे का महत्त्व

मेरा पन्ना
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आज कोई भी काम बिना शोर-शराबे , हँगामे के होता ही नहीं । सड़क से लेकर संसद तक इसी का जलवा है । चाहे काला धन वापस लाना हो या लोकपाल की लड़ाई हो , महँगाई का अपना दुखड़ा रोना हो या घोटालों-घपलों से तंग आकर सरकार को पानी पी-पीकर खुब खरी-कोटी सुनाना हो , बढ़ते अपराधों पर सुस्त कानून को जगाना हो या अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना हो , हर बात मे हँगामे का बड़ा स्कोप है । सरकारी योजनाओं को बनाने के लिए हँगामा , वो चलें तो हँगामा और अगर ना चलें तो भी हँगामा । छात्रों को देखिए इनकी शिक्षा तो बिना हँगामे के पुरी ही नहीं होनी । कभी एडमिशन के लिए हँगामा , कक्षाएँ न चलें तो हँगामा , परिक्षा के लिए हँगामा और रिजल्ट अटका तो हँगामा । बस हँगामा ही हँगामा । यहाँ तक कि खेतों की समस्याओं का भी सड़कों पर समाधान होने मे हँगामे का ही योगदान होता है ।
कुछ सरकारी दफ्तरों मे “ क्रिया-प्रतिक्रिया का सिद्धान्त ” बिल्कुल फिट बैठता है । वहाँ कर्मचारियों के चपलता का पैमाना हँगामे से ही तय होता है । जितना ज्यादा हँगामा होगा उतना ही बेहतर ढंग से कार्य होगा । अगर आपने हँगामे मे सुस्ती दिखाई और वहाँ आपका काम निठ्ल्लेपन का सुख भोग रहा हो तो फिर इसमे निस्वार्थ , दार्शनिक दफ्तर-कर्मियों का क्या दोष भला ? कार्य भी तो उसी गति से होगा ।
चक्का जाम , घेराव , अनशन , भुख हड़ताल नए जमाने की पहचान हैं , हालाँकि इनका अस्तित्व पुराना है लेकिन आज-कल ज्यादा चलन मे हैं और सरकारें अपनी कार्य प्रणाली से इनको बढ़ावा भी दे रही हैं । अब अपने संसद तथा विधानसभाओं के माननीयों को ही ले लीजिए इस काम मे इन्हे तो “ रोल माडल “ की संज्ञा दी जा सकती है , क्या मजाल जो एक भी सत्र बिना हंगामे , धक्का-मुक्की , मेजों से कुस्ती के बिना पूरा हो ? कभि ए मेजों पर होते हैं और कभि मेजें इन पर । कभी-कभी तो बात घुँसो-तमाचों और चप्पल-दर्शन से ही पुरी होती है । बेचारे अध्यक्ष महोदय को भी अपनी बात कहने के लिए कई बार निवेदन करना पड़ता है और तब भी उनकी बात नही सुनी जाती । थक हार-कर वे कार्यवायी को स्थगित करते हैं कि दुबारा शाँतिपुर्वक शुरु हो सके लेकिन ए माननिय सर्कस के शेर थोड़े हैं जो हंटर घुमाते ही दुबक के बैठ जाएं ए तो हंगामा करने के महारथी होते हैं । कब , किस तरह से कौन से “ वाद ” पर कौन सा “ विवाद ” खड़ा करना है इनसे बेहतर कौन बता सकता ?
अब सरकारी भाषा भी हंगामे की भाषा हो गई है , बिना इसके तो सरकार भी कोई बात नही समझती । शायद ही ऐसा कोई धरना- प्रदर्शन हो जिसमे पुलिस की लाठियाँ लोगों के समस्याओं का समाधान करते न मिलें । दो-चार सर फुड़ौव्वल ही इस बात का प्रमाण होता है कि बात सरकार तक पहुँच गयी अन्यथा प्रदर्शन मे ही कोई कमी थी ।
ऐसे मे यह आवश्यक हो गया है कि लोगों मे हँगामे के तकनिकी ज्ञान को लेकर जागरुकता बढ़े और यह काम शिक्षा के द्वारा ही हो सकता है । इस नैतिक गुण को प्राथमिक स्तर से ही पाठ्यक्रम मे सम्मिलित कर दिया जाना चाहिए जिससे कि छात्र पहले से ही इसमे पारंगत हों और देश के कर्णधार बन सकें ।

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