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मैंने *विश्व जाग्रति परिषद्* के बैनर के अन्तर्गत पढ़ा है –
कि
*अधिकारों के प्रति जाग्रति अथवा जागरूकता लाना, “विश्व जाग्रति परिषद्” का उद्देश्य है… अथवा कोशिश है।*
और ऐसा ही कुछ, यहां ग्रुप पर होता हुआ सा प्रतीत होता है.. तकरीबन सभी *अधिकारों* की ही बात करते हैं… और बहस करते हैं।
वैसे जीवन की व्यस्तता से मुझे ज्यादा समय ना मिल सकने के कारण, मैं ग्रुप के वार्तालाप से बहुत अधिक परिचित नहीं हो पाता हूँ… पर इतना जरूर दिखाई पड़ता है कि, किसी भी विषय में, अक्सर लोग *अधिकारों* की ही बात करते हैं।
अगर हमारे नेता… हमारे संगठन… एन जी ओ… अपने कर्तव्य को ठीक से पूरा कर भी दें… तो क्या हम बिना अपने कर्तव्यों के पालन के, अपने अधिकारों को प्राप्त कर सकते हैं…….?
यदि सभी अधिकारों की ही, लड़ाई लड़ते रहेंगे तो फिर कर्तव्यों का पालन कौन करेगा…….?
क्या ऐसा हो सकता है कि, बिना *कर्तव्य पालन* के, किसी को भी, कोई *अधिकार* प्राप्त हो जाय ………?
*क्या अधिकारों की जाग्रति ही विश्व जाग्रति है…?*
ये तो चारों तरफ पहले से ही हो रहा है… घर… परिवार.. गली.. मोहल्ला… गांव… देश… धरती… सभी जगह तो लोग अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं…!!!!
भाई.. भाई से…,, पड़ोसी – पड़ोसी से….,, पब्लिक – नेता से..,, देश – देश से….,, अपने अधिकारों की ही तो बात कर रहा है…. लडाई लड़ रहा है…!!!
तो इसमें क्या जाग्रति लानी है……?
इस प्रकार तो सभी जागरुक हैं… आलरेडी…..,!!!!
अगर वास्तव में जाग्रति लानी है… अथवा जागरुक करना है… तो *कर्तव्यों* के प्रति करना है… और इस जाग्रति की शुरुआत स्वयं से होती है….
और ऐसा करने पर *अधिकारों की लड़ाई* का कोई झंझट ही नहीं रहता…!!!
यानि स्वतः… स्वभावतः… सभी के अधिकार प्राप्त हो जाते हैं..!!!
कर्तव्य….. वोट डालने का…. कर्तव्य अपने जन प्रतिनिधियों को अपने गांव.. देश… की समस्या से अवगत कराने का…. कर्तव्य अपने गाली.. मोहल्ले.. गांव.. देश.. धरती के लोगों को… उनकी समस्याओं के समाधान के लिए ठीक – ठीक प्रेरित करने का…. कर्तव्य… स्कूल में अध्यापक की समस्या… और विद्यार्थियों की समस्या के समाधान का…….!!!!
कहने का अर्थ है… जिन्हें अधिकार समझा जा रहा है…. वे अधिकार हैं ही नहीं…. वे सब कर्तव्य हैं……..
दरअसल जिन्हें अधिकार समझ कर लड़ाईयां लड़ी जा रही हैं… वे सब केवल और केवल कर्तव्य ही हैं…. यहां किसी भी जीव को कोई अधिकार है ही नहीं… प्रकृति ने दिया ही नहीं… अपने चारों तरफ देखो.. सारी प्रकृति अपने कर्तव्य पालन में लगी हुई है… अधिकार तो…,, मानव की मानसिक विकृति है…!!!!
अपने ही सगे संबंधियों को युद्ध में मारने का भयानक कर्तव्य…. भी एक कर्तव्य ही तो है… ना – कि अधिकार…!!! यही उपदेश तो *श्री कृष्ण* ने गीता में दिया था.. अर्जुन को…
अर्जुन तो युद्ध में होने वाले नरसंघार को देखकर घबराते हुए, युद्ध को अपना अधिकार समझ कर छोड़ रहा था…( गीता का पहला और दूसरा अध्याय पढें), उसने तो दृवित होकर भगवान् से अपने अधिकारों को छोड़ने की बात स्पष्ट कह दी थी कि… मुझे भले ही मेरा राज्य ना मिले, जिसका कि मैं अधिकारी हूँ… पर मैं इनको कदापि नहीं मारना चाहता… इससे अच्छा तो मैं भीख मांग कर जीवनयापन कर लूँगा।
तब, भगवान् ने उसका यही मतिभ्रम गीतोपदेश के माध्यम से दूर किया था कि, जिसे तू अपना *अधिकार* समझ रहा है.. वह तेरा *अधिकार नहीं कर्तव्य* है।
यानि मानव का अगर कोई अधिकार है भी.., तो सिर्फ और सिर्फ, अपने कर्तव्य पालन का अधिकार है –
और यही गीता का वास्तविक मतलब है…
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।
(गीता- 2.47)
अर्थात वह सबकुछ जो मनुष्य करता है… कर रहा है… केवल और केवल कर्तव्य पालन के लिए, कर्तव्य समझ कर करे… ना कि अधिकारों के लिए अथवा अधिकार समझ कर..!!!!
और यही *राम की विचारधारा अथवा राम राज्य* है.. जहां *राजतिलक* के अधिकार की चिंता नहीं, अपितु पिता के वचनों के प्रति अपने *कर्तव्य पालन* का चिंतन है।
इस पर ये कहा जा सकता है कि, ये तो सिर्फ शब्दों अथवा विचारों की ही हेराफेरी तो है… बात तो एक ही है… यानि *अधिकार समझ कर करो या कर्तव्य समझकर* काम तो एक ही हो रहा है।
तो यहां ध्यान यह रखने की आवश्यकता है कि, जीवन में शब्दों अथवा विचारों की बड़ी ही मार्मिक महिमा है…
*माँ और बाप की लुगाई* एक ही स्त्री के दो संबोधन हैं…….
परन्तु इस बात को बड़ी ही साधारण बुद्धि से समझा जा सकता है कि…. दोंनो संबोधनों में क्या फर्क है…… और उनके क्या परिणाम है……?
अतः *विश्व जाग्रति परिषद्* का उद्देश्य किसी अधिकार को मांगना… छीनना.. अथवा दिलाना ना होकर… सिर्फ और सिर्फ… *कर्तव्य पालन* के प्रति जागरूक होना अथवा जागरुक करना है… अथवा… होना चाहिए।
और यदि कर्तव्य पालन की जागरुकता आ सकी अथवा लाई जा सकी तो … मैं यकीन के साथ कहता हूँ कि अधिकार की आवश्यकता ही समाप्त हो जायेगी……. जिसके लिए, सदियों से एक से बढ़कर एक लडाईयां लडी जा रही हैं।
जिस प्रकार *माँ* को *माँ* कहकर पुकारने में, निकटता के साथ साथ एक अनोंखे आनंद की अनुभूति होती है, ठीक उसी प्रकार किसी भी *कर्म* को अधिकार समझ कर करने की अपेक्षा, *कर्तव्य* समझ करने में, समाज में… संसार में एक अलग ही *प्रेमानंद* का अनुभव होगा।
और अधिकार की अपेक्षा *कर्तव्य* सहज है… स्वाभाविक है… स्वयं से.. स्वयं के साथ साथ सबके लिए है… कर्तव्य स्वाधीन है – स्वतंत्र है… अधिकार पराधीन है – तभी तो झंझट खड़ा होता है….. ।
*कर्तव्य से प्रेम प्रकट होगा और अधिकार से द्वेष….!!!!*
*यह जरुरी नहीं कि कोई “अपने जीवन काल” में सभी अधिकारों को प्राप्त कर सके…. परंतु यह निश्चित है कि यदि करने वाला चाहे तो सभी कर्तव्यों का पालन कर सकता है।*
*सृष्टि में… प्रकृति में… एक अकेला “कर्तव्य” तो कर सकता है… पर “अधिकार” के लिए, अनिवार्यतः दूसरा चाहिए ही चाहिए।*
अतः निवेदन करता हूँ कि, अधिकारों की बात ना करके… सिर्फ और सिर्फ… कर्तव्यों पर ही विचार करें…. कि *मैं* स्वयं अथवा समाज – संसार के लिए क्या कर सकता हूँ…. इसी में जीवन की सार्थकता… जीवन का आनंद…. और समाज – संसार अथवा ईश्वर की प्रेमानंद सेवा है।
श्री पुष्पेन्द्र शर्मा (सोनीपत) जी के विचार….
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