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शोले आस्माँ से बरस रहे हैँ,
जिस्म मोम से पिघल रहे हैँ,
सूखे नदी नाले, सूखे तालाब,
पशु, पक्षी ढूँढते फिरते छाँव,
मन के कमल कुम्हला रहे हैँ,
तन के गुलशन मुरझा रहे हैँ,
गालोँ पर लगते लू के तमाचे,
गलियो मेँ पसरे हुए सन्नाटे,
सङकेँ बनी आग का गोला,
पगडंडियोँ ने पहना धूल का चोला,
जल गयी दूब, सूखे दरख्त,
प्रकृति भी है गरमी से त्रस्त,
भोजन से ज्यादा भाता है पानी,
मगर मेहनतकश के आगे
गरमी ने हार मानी,
दो पैसोँ की खातिर फिरता मारा-2,
भरी दोपहरी फेरीवाला बेचारा,
पोँछता पसीना लगाता जोर,
रिक्शेवाले के आगे
सूरज भी है कमजोर,
किसान भी कहाँ डरता है गरमी से,
मजदूर बुझाता आग अपने जिस्म की नमी से,
धूप मेँ चौराहे, फुटपाथोँ पर सजाये दुकान,
ग्राहक की तलाश मेँ बैठे कुछ इन्सान,
सूरज की आग से बढकर है पेट की आग,
पैसोँ से ही चलता है परिवार,
तोङ नहीँ सकती गरमी आदमी के हौँसले,
जिँदगी चलती रहती है
चाहे मौसम कितने भी रंग बदले ।
यह जिस्म तो है गीली मिट्टी का लौँदा,
छोटे बङे हर साँचे मेँ फिट होता,
मेहनत से बन जाता फौलाद है,
आरामतलबी कर देती इसे बर्बाद है,
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