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हमारे देश मेँ यह चलन बन गया है कि जब भी चुनाव नजदीक आते हैँ तो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता मुसलमानोँ की बदहाली का रोना रोने लगते हैँ । काँग्रेस सरकार ने तो सच्चर कमीशन गठित कर यह साबित करने की कोशिश की वही मुस्लिमोँ की सबसे हितैषी पार्टी है । कोई मुस्लिमोँ को आरक्षण देने की बात करता है, मदरसे खुलवाने की । लेकिन मेरी समझ मेँ यह नहीँ आता है कि जिस कौम ने लगभग 800 साल मुल्क पर राज किया, आज वह इस स्थिति मेँ कैसे पहुँच गयी कि गुरबत, अशिक्षा तथा बदहाली की जिन्दगी गुजारने को मजबूर है ।
सन 1192 मेँ तराईन के द्वितीय युद्ध मेँ मुहम्मद गौरी के हाथोँ पृथ्वीराज चौहान की पराजय के साथ ही हिन्दुस्तान मेँ मुस्लिम सत्ता कायम हुयी जो अनवरत 1857 तक चलती रही । मुस्लिम राज मेँ मुस्लिमोँ को विभिन्न प्रकार के विशेषाधिकार प्राप्त थे जबकि इसके विपरीत बहुसँख्यकोँ जजिया कर, तीर्थ यात्रा कर ( अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ के काल को छोङकर) देना पङता था । इसके अतिरिक्त गैर मुस्लिमोँ के लिए लगान की दर भी ज्यादा मुकर्रर की जाती थी । इस दौरान बलात धर्म परिवर्तन, सामूहिक नरसँहार आदि प्रताङनाओँ से भी बहुसँख्यकोँ को पीङित होना पङा ।
1857 के गदर के लिए अँग्रेजोँ ने मुस्लिमोँ को दोषी माना तथा उनकी उपेक्षा की । लेकिन यह तो केवल 20 या 30 तक चला । काँग्रेस की काट के तौर पर अँग्रेजोँ ने मुस्लिमोँ को प्रयोग किया । 1906 मेँ मुस्लिम लीग की स्थापना तथा 1909 के मिन्टो-मार्ले सुधार के तहत पृथक निर्वाचन की सुविधा देना, अँग्रेजोँ की मुस्लिमोँ को वरीयता देने की नीति के प्रत्यक्ष उदाहरण हैँ । एक वायसराय ने तो यहाँ तक कह दिया था कि “हिन्दू और मुस्लिम मेरी दो दुल्हनेँ हैँ, जिनमेँ से मुस्लिम अधिक प्रिय है” पूरे स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान अँग्रेज जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग के हितोँ को साधते रहे ।
आजादी के पश्चात हमने धर्मनियपेक्ष सँविधान अपनाया । सभी धर्मों को धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक स्वतंत्रता के साथ साथ तरक्की के सामान अवसर प्रदान किये गए | मजहब के नाम पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया गया | लेकिन तरक्की की इस दौड़ में मुस्लिम क्यों पिछड़ गए, यह वास्तव में एक काबिलेगौर मसला है | कुछ लोग कह सकते हैं की मुस्लिमों को बंटवारे ने मुतास्सिर किया | लेकिन बंटवारे का दंश तो सिक्खों ने भी झेल था | उनकी हालत तो आज इतनी खराब नहीं है |
अगर गहराई से कारणों का अधध्यन किया जाये तो पायेंगे की मुस्लिम आज इक्कीसवी सदी में भी सातवीं और आठवीं सदी के रीति रिवाजों के साथ जी rahe हैं | धर्मान्धता, रूढ़िवादिता से अपना दामन छुड़ाने को तैयार ही नहीं हैं | उनकी सोच मध्यकालीन है की सरकार उन्हें विशेष अधिकार प्रदान करे और उनका उत्थान कराये | देश में सभी के लिए बनने वाले क़ानूनों की मुखालफत करने में वे फख्र महसूस करते हैं | वे राजनेताओं, धर्मगुरुओं को अपना आका समझकर, आँखें मूंदकर उनके पीछे चलने लगते हैं , चाहे वे उन्हें अंधकूप में ही क्यों न गिरा दें |
हमें याद रखना चाहिए कि जब तक हम खुद प्रयास नहीं करेंगे, भगवान भी हमारी कायाकल्प नहीं कर सकता | आदमी को अपने उत्थान के लिए खुद मेहनत करनी पड़ती है | वक़्त के साथ ढालना पड़ता है | तभी कोई आगे बढ़ता है |
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