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सपना था वह या हकीकत
उलझन मन में आज बड़ी
देख रही थी मैं बालकनी से
दूर कहीं सहज ही जब खड़ी
देखा किसी घरके आँगन मे थे
दो बालक घुटनो-बल खेल रहे
एक कुछ टूटे डब्बो से था खुश
दूजे के लिए खिलौने भी ढेर लगे
एक शिशु कोठी के मालिक का
तो दूजा माली का था बेटा ‘फूल’
एक का प्यारा नाम है ‘गुलशन ‘
दूजा माली का नन्हा बेटा ‘फूल’
सुन्दर कालीन पे बैठा था ‘गुल’
हरी घास पे खेलता नन्हा फूल
घुटने चल पानी की बोतल पीछे
और डब्बों में था बहुत मशगूल
सहसा एक डब्बा जा ही पहुंचा
लुढ़कता हुआ गुलशन की ओर
जिसे पाने को पंहुचा जैसे ही फूल
देख एक-दूजे को वे गए सब भूल
प्यार से ही दोनों ने देखा था ऐसे
मिले आज राम-लखन हों जैसे
ज्ञात न इन्हें थी अमीरी -गरीबी
हो गए देखते ही आत्म-करीबी
कितने खुश थे मिल एक-दूजे से
गूँज नन्ही किलकारियाँ फिजा में
दे रहीं मानवता को मौन संदेसा
ऊँच -नीच का भेद हममें कैसा ?
सिखा रहे ये नन्हें शिशु भी हमें
जात -पात ,ऊँच -नीच को छोड़
अमीरी-गरीबी में फर्क न करके
वोदो दिलों में अब प्यार की बौर
देखो जरा इन मासूमों का जहाँ
इसमें नहीं कोई दौलत की चाह
जो न करते दिल दुखाने की बातें
खेल में भी दोनों की एक ही राह
बड़े होते ही क्यों हो जाते हैं अलग
क्यों गढ़ते ये भेद-भाव के ‘ फलक’
काश, होता बड़ों का दिल शिशु जैसा
तब तो धरती पे नूर ही नूर बरसता
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