Menu
blogid : 5086 postid : 49

प्रक्रति में प्राण

नए कदम
नए कदम
  • 40 Posts
  • 49 Comments

शाम की शर्म आकाश में लालिमा बिखेर रही है।

एक अनकही सी कहानी प्रक्रति में चल रही है॥

 

हवा मदमस्त दीवानी से हो कर बलखा रही है।

मध्धम कदमों से हर जर्रे में बह रही है॥

 

रात काले अंधेरे का सहारा लेकर।

कभी चंद की रोशनी का इशारा लेकर॥

दिन को शाम और शाम को रात कर रही है।

यह दास्तां सदियों से चल रही है॥

 

नदी उफनती है पत्थर को देख कर।

और मुस्कुरा देती है एक झरना बन कर॥

कभी छोटी धाराओं में मर्यादित होती है।

और कभी ऊंचे किनारो को देख चिल्ला रही है॥

 

पेड़ भी मुरझा जाता है कड़कती ठंड में।

और मचल जाता है सावन की गोद में॥

कहीं आस्था के रूप में पूजा की जा रही है।

कभी चिड़िया कभी गिलहरी घर बना रही है॥

 

और धरती भी करवट बदलती है।

बहुत शोर और कंपन करती है॥

और बदल देती है कभी सागर कभी भूमि की रेखा।

जैसे पर्थवी की भी धड़कन चल रही है॥

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh