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राजनीति की तराजू में आदर्श महापुरुष

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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अगला लोकसभा चुनाव किसके पक्ष में होगा अभी इसकी महज परिकल्पना ही की जा सकती हैं किन्तु राजनेताओं की तिकड़मबाजी अभी से शुरू होकर आदर्श महापुरुषों के चरित्र और सम्मान पर आन टिकी है. अखिलेश यादव की ओर से सैफई में योगिराज श्रीकृष्ण कृष्ण की 50 फुट ऊंची प्रतिमा लगवाने के बाद अब मुलायम सिंह ने कृष्ण को पूरे देश का आराध्य बताया है. उसने आस्था की तराजू पर रखकर राम और कृष्ण के आदर्श तोलकर बताया कि श्रीकृष्ण ने समाज के हर तबके को समान माना और यही कारण है कि कृष्ण को पूरा देश समान रूप से पूजता है, जबकि राम सिर्फ उत्तर भारत में पूजे जाते हैं. दरअसल मुलायम सिंह यादव राम और कृष्ण की तुलना कर अपनी धार्मिक राजनीति चमका रहे है शायद वो यह बताना चाह रहे थे कि मर्यादा पुरषोत्तम राम क्षेत्रीय भगवान है और श्रीकृष्ण राष्ट्रीय? पर मुझे लगता है हमारा पूरा देश जन्मअष्ठ्मी हो या रामनवमी समान आस्था के साथ मनाता आया है.

सब जानते है कि यह भारत की राजनीति है जब यहाँ सत्ता पाने का कोई चारा दिखाई न दे तो धर्म का ढोल बजा दिया जाये यदि धर्म का ढोल कमजोर पड़ें तो जाति और क्षेत्र में लोगों को बाँट दिया जाये यदि इनसे भी काम ना चले तो भारतीय संस्कृति जिसमें उसके महापुरुष जन्में हो उनका एक मर्यादित इतिहास रहा हो तो क्यों न उनका इतिहास उधेड़कर अपने तरीके से सिया जाये? चाहें वह युगों युगान्तरों पूर्व का ही क्यों न हो?

मुलायम सिंह यादव खुद को समाजवाद के अग्रणी नेता बताते रहे है. समाजवाद का अर्थ जहाँ तक मेरी समझ में आया हैं तो यही होता होगा हैं कि समाज में सब में समान हो. कोई छोटा-बड़ा नहीं हो, इसमें चाहें आम समाज हो या महापुरुष. खुद मुलायम सिंह के गुरु लोहिया भी राम, कृष्ण और शिव से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे उन्होंने कहा था कि ‘हे भारतमाता! हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय और राम का कर्म और वचन और मर्यादा दो. लेकिन अब अब राम भाजपा का हो गया और कृष्ण समाजवादियों का. अब भला समाजवादियों का कृष्ण राम से कम कैसे आँका जाये? लगता है अब धार्मिक आस्थाओं का मूल्य वोट और नोट से ही चुका-चुकाकर जीना पड़ेगा कारण धर्म पर बाजार और राजनीति जो हावी है. आपको अपने भगवान के बारे में जानना है तो राजनेता बता रहे है और यदि इसके बाद उनके दर्शन करने है पैसे चुकाने पड़ेंगे ये आपकों तय करना है कि कितने रुपये वाला दर्शन करना है और आपका भगवान राजनितिक तौर पर कितना मजबूत यह जानने के नेता बता रहे है.

महात्मा गांधी ने गीता को तो स्वीकार किया उसे माता भी कहा लेकिन गीता को आत्मसात करते हिचक दिखाई दी इससे गाँधी की अहिंसा के मूल्य खतरें में पड़ जाते थे तो उन्होंने कहा यह लड़ाई कभी हुई ही नहीं यह मनुष्य के भीतर अच्छाई और बुराई की लड़ाई है. यह जो कुरुक्षेत्र अन्दर का मैदान है. कोई बाहर का मैदान नहीं है. कला से लेकर संस्कृति तक अब भगवान भी राजनीति के कटघरे में खड़े से नजर आ रहे हैं. यह स्थिति क्यों बनी और क्या ऐसी ही स्थिति बनी रहेगी? अब हमारे सामने आगे की राह क्या है? अभी किसी ने सुझाई नहीं है. अलग-अलग काल में धर्म और राजनीति की अलग-अलग भूमिका रही है. लेकिन वर्तमान समय इन दोनों को एक जगह मिलाकर व्याख्या कर रहा है. जिसे अभिव्यक्ति की आजादी का नाम दिया जा रहा है. हम महापुरुषों को चरित्र बिगड़कर क्या साबित करना चाह रहे है अभी किसी को पता नहीं!!

आधुनिक जीवनशैली के चलते हम महापुरुषों से लेकर धर्म को अपने अनुसार बदलने पर तुले हैं, इतिहास से लेकर अपने नायकों अधिनायकों पर सवाल उठा रहे है पर यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि यह बदलाव हमारे लिए भविष्य में सकारात्मक होगा या नकारात्मक? क्योंकि यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि हम बिगाड़ तो रहे है लेकिन बना क्या रहे है? निश्चित रूप से अब तक जो भी जवाब या स्वरूप सामने आये है वह नकारात्मक है.  इस कारण अब हमें धर्म की व्याख्या करते समय इस बात का ध्यान आवश्यक रूप से रखना होगा कि हम राजनीति को धर्म से अलग रखें तभी धर्म के संस्कारों का बीजारोपण आगे आने वाली पीढ़ी में कर पाएँगे.

लोहिया भारतीय राजनीति में बड़े परिवर्तन के इच्छुक थे लोहिया ने कहा था  ‘‘धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं, पर दोनों की जड़ें एक हैं, धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति अल्पकालीन धर्म है. धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे. इसलिए आवश्यक है कि धर्म और राजनीति के मूल तत्व समझ में आ जाए. धर्म और राजनीति का अविवेकी मिलन दोनों को भ्रष्ट कर देता है, फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें.

संकीर्ण भावनाओं का इस्तेमाल पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीति का हिस्सा बना हुआ है, जिससे देश और समाज को बहुत बड़ा नुकसान हुआ है. नेताओं को अपने राजनितिक युद्ध में अपने महापुरुषों को नहीं घसीटना चाहिए हो सकता है एक नेता का दुसरे नेता से कोई वैचारिक विरोध हो पर राम का कृष्ण से कैसा विरोध? गुरु   नानक का बुद्ध से कैसा विरोध? हर कोई अपने-अपने समय पर इस पावन भारत भूमि पर आया, अपने विचारों से अपनी शिक्षाओं से समाज को दिशा दी हैं. सामाजिक, नैतिक मूल्य मजबूत किये, आचरण सिखाया. आगे चले और बिना किसी जातिगत भेदभाव के आगे चले. अब हमें अपने व्यवहार व आचरण को लेकर सोचना होगा और इस बात को ध्यान में लाना होगा कि यदि हमने महापुरुषों को क्षेत्र या जातिवाद या फिर दलीय राजनीति में विभाजित किया तो क्या हम भी विभाजित हुए बिना रह पाएंगे?…विनय आर्य

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