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जिन्ना अब तो भारत छोड़ो

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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जिन्ना को मजहब चाहिए था हमें राष्ट्र, जो जिन्ना कहता था कि हिन्दू-मुस्लिम कभी भाई-भाई नहीं हो सकते वह जिन्ना इस देश की विरासत क्यों? क्या अब जिन्ना को उसी के पाकिस्तान नहीं भेज देना चाहिए? ये याद दिलाने की बात है कि पाकिस्तान का आंदोलन ए एम यू कैंपस से ही शुरू हुआ था। यहीं पढ़े लिखे मुसलमानों ने एकजुट होकर मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग की आवाज उठाई थी। एक बार फिर पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लेकर हुए बवाल एवं लाठीचार्ज के बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय चर्चा का विषय बना। ए एम यू की ओर से कहा जा रहा है कि विश्वविद्यालय के स्टूडेंट यूनियन हॉल में जिन्ना की तस्वीर साल 1938 से लगी हुई है, जब जिन्ना को आजीवन सदस्यता दी गई थी। ये आजीवन मानद सदस्यता ए एम यू स्टूडेंट यूनियन देता है। पहली सदस्यता महात्मा गांधी को दी गई थी। बाद के सालों में डॉ. भीमराव आंबेडकर, सी.वी. रमन, जय प्रकाश नारायण, मौलाना आजाद को भी आजीवन सदस्यता दी गई। इनमें से ज्यादातर की तस्वीरें अब भी हॉल में लगी हुई हैं। ऐसे में सवाल ये है कि 80 साल बाद ए एम यू में जिन्ना की तस्वीर पर बवाल क्यों हो रहा है?

 

 

 

जिस अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आज डॉ. अब्दुल कलाम, वीर अब्दुल हमीद, अशफाकउल्ला खां की तष्वीर होनी चाहिए थी वहां आज जनसंघ के नाम और सरकार के विरोध पर जिन्ना को पूजा जा रहा है। जो लोग आज मासूमियत से बवाल की वजह पूछ रहे हैं या तो उन्होंने भारत का इतिहास नहीं पढ़ा या जानबूझकर सच जानना नहीं चाहते या फिर से जिन्ना की बंटवारे की विचारधारा को बल देना चाहते हैं। मोहम्मद अली जिन्ना की वजह से देश दो हिस्सों में बंट गया था। लाखों लोग बेघर हुए, लाखों का कत्ल हुआ, लाखों महिलाओं की अस्मत को तार-तार किया गया पाकिस्तान के नाम का जख्म भारत के बाजु में दिया जो लगातार 70 वर्षों से युद्ध,आतंक और हिंसा के नाम से रिस रहा है।

 

स्न 1875 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाने के पीछे सर सैय्यद अहमद खाँ की एक खास सोच थी। उन्होंने मुस्लिम समुदाय में वैज्ञानिक और तार्किक सोच पैदा करने के लिए इसकी नींव रखी थी। लेकिन लगता है ए एम यू के प्रसाशन इसके संस्थापक सर सैय्यद की सोच से अलग हटके जिन्ना की विचाधारा को तरजीह देकर यहाँ से इंजीनियर और डॉक्टर के विपरीत फिर से बंटवारे की फौज खड़ी करना चाह रहे हैं। जरूरी नहीं कि शुरू में बंटवारा जमीन का हो-हाँ एक विचाधारा जब मजबूत होती है तो अंत में बंटवारा जमीन का ही होता है।

 

 

लेखक और विचारक तुफैल अहमद लिखते हैं कि जब 80 के दशक में मैं अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, तो तब एक भी लड़की बुर्का पहने नज़र नहीं आती थी, न ही किसी लड़के के सिर पर टोपी देखने को मिलती थी। उस दौर से आज तक में बहुत फर्क आ गया है। जो सामाजिक बदलाव हुआ है वह यही है कि छात्रों की जिंदगी में धर्म ने अच्छी-खासी जगह बना ली है। छात्रों में बढ़ता धार्मिक झुकाव, पूरी दुनिया के मुसलमानों की सोच में आ रहे बदलाव का ही एक हिस्सा है। कई बार कोई लिबास सिर्फ लिबास नहीं होता। उसी तरह बुर्का और टोपी भी एक विचार है इनकी अपनी राह और रंगत है।

 

 

 

 

असल में मुझे लगता है बात केवल जिन्ना की तश्वीर तक सीमित नहीं है वहां धर्मनिरपेक्षता की आड़ में बच्चों को जेहनी तौर पर इस्लाम की तरफ मोड़ा जा रहा है। उनके अन्दर एक विचारधारा खड़ी की जा रही है जो सन् 47 से पहले जिन्ना और समर्थकों ने खड़ी की थी कि मुसलमानों का धर्म अलग है वह सिर्फ शरियत से चल सकता है उसके लिए संविधान जैसी चीजे बेकार हैं। क्योंकि इस्लाम एक दर्शन, एक धर्म, विचारों की एक व्यवस्था, एक विचारधारा, एक तरह की राजनीति और एक तरह के विचारों का आंदोलन है। यह शांतिपूर्वक हो या हिंसक तरीके से, जो लोगों के जीवन पर शरिया के नियमों को लागू करना चाहता है।

 

तुफैल कहते हैं कि भारतीय सेना से रिटायर्ड ब्रिगेडियर सैय्यद अहमद अली ने 2012 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रो-वाइस चांसलर (प्रति कुलपति) का काम संभाला था। सेना में 35 साल काम करने के बाद भी ब्रिगेडियर साहब उसकी धर्मनिरपेक्षता को आत्मसात नहीं कर पाए और पद पर आसीन होते ही ब्रिगेडियर अली ने भारतीय मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग उठाई थी। इस सेमिनार में हिस्सा लेने आए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील महमूद पार्चा ने कहा था कि भारतीय युवाओं को यह याद दिलाने की जरूरत है कि 1947 में धर्म के आधार पर देश के बंटवारे की नींव भी इसी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रखी गई थी। चौंकाने वाली बात यह है कि 21वीं सदी में एक बार फिर भारत को बांटने की बात यहां से हो रही है। धर्म के आधार पर इस तरह की वकालत का नतीजा एक और बंटवारा ही होगा। दुख की बात यह है कि एक बार फिर ए एम यू इसका गवाह बन रहा है। ए एम यू में जो हालात बन रहे हैं उससे एक और बंटवारा टाला नहीं जा सकता और इसके लिए ब्रिगेडियर सैय्यद अहमद अली और उनके जैसी सोच रखने वाले वे लोग ही जिम्मेदार ठहराए जाएंगे जो आज जिन्ना की तश्वीर पर मौन साधे बैठे हैं या फिर सरकार और वीर सावरकर को निशाना बना रहे हैं।

 

एक बार फिर आज कैंपस में बढ़ती धार्मिकता यूनिवर्सिटी के बौद्धिक माहौल के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई है। दिल्ली से बीजेपी सांसद महेश गिरी कह रहे हैं कि पाकिस्तान में लाला लाजपत राय की मूर्ति को 1947 में तोड़ दिया गया, फादर ऑफ लाहौर सर गंगाराम की मूर्ति को लाहौर में तोड़ दिया गया, करांची हाईकोर्ट में महात्मा गांधी की मूर्ति बचाने के लिए उसे इंडियन हाईकमीशन में शिफ्ट करना पड़ा तो जिन्ना की तस्वीर वहां पर लगाने की क्या जरूरत है?

 

 

जिन्ना कोई नाम नहीं है बल्कि एक विचारधारा है। जो भाई को भाई से अलग करती है। जिन्ना हमारे देश की कोई विरासत नहीं है। हमें एक स्वतंत्र राष्ट्र चाहिए था लेकिन जिन्ना को इस्लाम। जिन्ना की मुस्लिम लीग ने ही 16 अगस्त  1946 को कोलकाता में 15 हजार लोगों को मार डाला था। इसलिए आजाद भारत में उनकी तस्वीर की कोई जगह नहीं है। ऐसे विवाद के समय किसी ने फेसबुक पोस्ट में सवाल किया है कि जो लोग आज जिन्ना की तश्वीर के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मरने-मारने पर उतारू हैं तो सोचिये यदि जिन्ना के पाकिस्तान से युद्ध हुआ तो वह किसका साथ देंगे?

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