Menu
blogid : 23256 postid : 1389213

दलितों के बौद्ध बनने से क्या होगा?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
  • 289 Posts
  • 64 Comments

अप्रैल महीने की 29 तारीख शायद धर्म में डुबकियाँ लगाने का दिन था। खबर ही ऐसी थी कि गुजरात के उना में करीब 450 दलितों ने धर्म परिवर्तन कर लिया। अपने ऊपर हो रहे कथित अत्याचार के चलते मोटा समाधियाला गांव के करीब 50 दलित परिवारों के अलावा गुजरात के अन्य क्षेत्रों से आए दलितों ने यहां एक समारोह में बौद्ध धर्म अपना लिया। उन्होंने आरोप लगाया कि उन्हें हिन्दू नहीं माना जाता, मंदिरों में नहीं घुसने दिया जाता, इसलिए उन्होंने बुद्ध पूर्णिमा के दिन हिन्दू धर्म छोड़ दिया।

अब जो लोग सोच रहे है ये नवबौद्ध सर मुंडाकर हाथ में घंटी की जगह झुनझुना पकड़कर जल्दी ही दलाई लामा, तिब्बती या जापानी बौद्ध भिक्षु बन जायेंगे तो बेकार सोच है। हाँ ये जरूर है अगर ये धर्म परिवर्तन अम्बेडकर के समय में ही हो गया होता तो शायद लोग भारतीय बौद्ध धर्म को देखने-समझने के लायक जरूर हो गये होते। मंदिर-मस्जिद के झगड़ों की तरह ही मठों के आपसी झगड़ों को भी देख चुके होते। लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या एक धर्म के छोड़ने से और नव धर्म के पकड़ने से सामाजिक समस्याओं का समाधान हो सकेगा?

 

चित्र साभार गूगल
चित्र साभार गूगल

ये आये दिन की बात हो गयी है कि फला जगह दलितों पर हमला हुआ और उन्होंने धर्मपरिवर्तन की धमकी दी। इसके बाद कुछेक वामपंथी और कुछ दलित चिंतक मैदान में आकर कहते हैं कि जो हिन्दुत्व दलितों को बराबरी नहीं दे सकता, उससे निकल जाना ही बेहतर है। अक्सर ऐसे बुद्धिजीवी दो अलग-अलग शब्दों, दलित और हिन्दू का इस्तेमाल करते हैं। वे तर्क देते है कि हिन्दू तो सिर्फ स्वर्ण हैं और दलितों को अधिकार ही नहीं तो हिन्दू कैसे?  इसके बाद धर्मांतरण का कुचक्र चलता है आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर लोगों को उठाकर इस धर्म से उस धर्म में पटक दिया जाता है। ऊना में कथित गौरक्षकों द्वारा जो हुआ मैं उसका समर्थन नहीं करता। दोषियों को संविधान के अनुसार सजा मिलनी चाहिए। बस सवाल यह है कि क्या मात्र एक झगड़े की वजह से अपना मूल धर्म छोड़ देना चाहिए?

अमेरिका में काले और गोरे लोगों के बीच एक लम्बे संघर्ष का इतिहास रहा है। कालों के साथ इस हद तक बुरा बर्ताव था कि उन्हें नागरिक अधिकारों के प्रति लम्बा संघर्ष करना पड़ा, अमेरिका का संविधान लागू होने के सेंकड़ों वर्षों बाद उन्हें तब कहीं जाकर 1965 में गोरे नागरिकों के बराबर मताधिकार दिया गया। इस लम्बे संघर्ष के कालखण्ड में क्या कोई बता सकता है कितने काले लोगों ने अपना धर्म छोड़ा? गोरों और कालों के बीच सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक असमानताएं आज भी बनी हुई हैं। जातीय भेद अमेरिका की भी कड़वी सच्चाई है। इसी वजह से गोरों की बस्तियों में कालों के घर बिरले ही मिलते है।

बात इस्लाम की करें तो अहमदिया समुदाय के लोग स्वयं को मुसलमान मानते हैं परन्तु अहमदिया समुदाय के अतिरिक्त शेष सभी मुस्लिम वर्गां के लोग इन्हें मुसलमान मानने को हरगिज तैयार नहीं होते। बल्कि देश की प्रमुख इस्लामी संस्था दारुल उलूम देवबंद ने वर्ष 2011 में सऊदी अरब सरकार से मांग की थी कि अहमदिया समुदाय के लोगों के हज करने पर रोक लगाई जाए। संस्था ने इस समुदाय के लोगों को गैर मुस्लिम लिखते हुए कहा था कि शरिया कानून के मुताबिक गैर मुस्लिमों को हज करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती है।  इस सबके बावजूद क्या कोई बता सकता है कि अहमदिया समुदाय के लोगों ने इससे प्रताड़ित होकर इस्लाम छोड़ दिया?

चलो ये भी छोड़ दिया जाये तो शिया-सुन्नी विवाद इस्लाम के सबसे पुरानी और घातक लड़ाइयों में से एक है। इसकी शुरुआत इस्लामी पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु के बाद, सन् 632 में, इस्लाम के उत्तराधिकारी पद की लड़ाई को लेकर हुई थी जो आज तक जारी है जिसमें करोड़ों लोग अपनी जान गँवा चुके है लेकिन क्या कोई बता सकता है कितने शिया और कितने सुन्नी लोगों ने इस्लाम छोड़ दिया?

लेकिन इसके उलट हमारे यहां यदि एक कथित ऊँची जाति का अशिक्षित बेकारा जिसकी खोपड़ी में जाति की सनक है अगर वह किसी दलित को धमका दे तो अनेकों लोग कूद पड़ते है कि ब्राह्मणों ने बहुत ऊंच-नीच फैला रखी है। कोई मनुस्मृति पर आरोप लगाएगा तो कोई धर्म पर। हम जातिगत भेदभाव से इप्कार नही कर रहे हैं और ना ही इसका समर्थन करते लेकिन धर्म छोड़ना कोई समाधान कैसा हो सकता है? मुझे नहीं लगता पलायन से कोई भी दलित सम्मान कमा सकता है सम्मान हमेशा संघर्ष को मिलता है। धर्म पर जितना अधिकार एक कथित ऊँची जाति के व्यक्ति का है उतना ही अन्य लोगों का भी है।

आज भले ही इस्लाम और ईसाइयत समतावादी धर्म होने का दावा करते हां लेकिन हिन्दू समाज से जो भी लोग इनमें गये वे अपनी सामाजिकता और जाति साथ लेकर गये इसलिए मुसलमानों में सैय्यद और दलित के बीच वही भेद है जो हिन्दू समाज में पंडित और शूद्र के बीच है। ईसाइयत को भी जाति प्रथा ने नहीं छोड़ा यानि भारतीय परिवेश में जाति धर्म से बड़ी ताकत साबित हुई लोगों ने धर्म छोड़े और स्वीकारें लेकिन उनकी जाति चेतना वही और वैसी ही बनी रही। आखिर ईसाई के तौर पर ही उन्हें दलित बनाए रखने की जिद्द क्यों? क्या किसी चिंतक के पास है इसका जवाब है? राजनीतिक दलों से इस बारे में कुछ उम्मीद करना बेमानी होगा, जिन्हें सिर्फ दलितों का वोट चाहिए। भले ही नवबौद्ध बनकर दें, दलित ईसाई के तौर पर दें या फिर इस्लाम की निचली कड़ी से जुड़कर।

आजकल अन्य व्यापारों की तरह धर्म-परिवर्तन ने भी एक व्यापार का रूप ले लिया है। जबकि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है। कुछ गिने चुने लोग बिशप बन जाते हैं पर दलित तो दलित ही रह जाते हैं। आखिर वे हिन्दू से निकलकर भी दलदल में क्यों हैं? इसलिए भी कहना पड़ेगा धर्म परिवर्तन के अलावा सचमुच अगर कोई विकल्प न हो पर धर्म परिवर्तन से भी जाति प्रथा से कोई मुक्ति नहीं है। हमें जातिप्रथा के अंत के विकल्प तलाशने होंगे, नये तरीके खोजने होंगे, नये ढ़ंग से संघर्ष चलाना पड़ेगा भारत को धर्मां और जातियों के आपसी टकराव का देश नहीं बल्कि एक समान समाज का देश बनाना होगा।..विनय आर्य 

 

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh