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भारत से कुछ सबक ले,यूरोप

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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यूरोपीय देशों की सीमा पर बैठे सीरियाई शरणार्थियों की किसी मुस्लिम देश को सुध नहीं है| उन्हें शरण देने वाले यूरोपीय देश भी अब और किसी प्रकार का खतरा मोल लेने से हिचक रहे है| शायद तभी  बेल्जियम के उपप्रधानमंत्री यान जंबन ने अपनी चिंता जाहिर की है| उन्होंने कहा है यूरोप में ब्रुसेल्स हमले के बाद इस्लाम के प्रति लोगों की भावना बदली है और इस्लाम को लेकर नफरत भरे बयानों में भी तेजी आई है| जंबन के अनुसार यूरोप में जबरदस्त धार्मिक संतुलन बिगड़ने वाला है| इस स्थिति में आज जरूरत है कि हमें मुस्लिमों को आतंकवादियों के पाले में जाने से रोकना होगा| क्योकि ब्रसेल्स हमले के बाद मुस्लिम समुदाय के लोग डांस कर रहे थे जबकि इस हमले में 32 लोग मारे गये थे| जंबन ने यदि ऐसा है, तो आने वाले कुछ वर्षो में समस्त यूरोप के सामने समस्या खड़ी हो सकती है| यूरोप, जो पहले ही आर्थिक संकट से गुजर रहा है यदि वहां धीरे धीरे धार्मिक संतुलन भी बिगड़ा तो यूरोप की स्थिति दयनीय होकर सीरिया, यमन, तुर्की जैसी होने में देर नहीं लगेगी|

यह कहना गलत नहीं होगा कि यूरोप को ऐसी स्थिति में भारत जैसे देशों से कुछ सीख लेनी चाहिए| भारत ने भी बांग्लादेश गठन के बाद लाखों की संख्या में बांग्लादेशी शरणार्थियों को भावनात्मक रूप से शरण दी थी, जो पूर्वोत्तर राज्यों में आकर बस गये थे| जिसके बाद पूर्वोत्तर राज्यों में तेजी से धार्मिक संतुलन बिगड़कर स्थानीय लोगों के अन्दर शरणार्थियों के प्रति गुस्सा जन्म लेने लगा जिसके कारण पूर्वोत्तर राज्यों खासकर असम में आतंकवाद पनपकर  भारत के अन्दर प्रभाव दिखाने लगा है| शायद आने वाले कुछ वर्षो के बाद यूरोपीय देशों में भी कुछ ऐसा ही हाल देखने को मिले| आशंका से मुंह मोड़ने के बजाय यह बात तय है कि अगले दस वर्ष तय कर देंगे कि यूरोप और पुरे विश्व के हालात भविष्य में कैसे होंगे? ज्ञात हो सीरियाई संकट के समय खुद मुस्लिम देशों के द्वार बन्द होने के बाद  सीरियाई, इराक से  शरणार्थी यूरोप के देशों जाकर बसे थे| उनमें सबसे अधिक 90 हजार जर्मनी 60 हजार से ऊपर स्वीडन गये थे| सितम्बर 2015 तक हर रोज 8 हजार शरणार्थियों ने यूरोपीय देशों में पलायन किया था| इस सबके बाद जेहन में जो प्रश्न उपजते है वो ये है, कि यदि इस्लाम की विचारधारा उपयुक्त है, तो इन लोगों के सामने इस्लामिक लोगों ने ही यह हालात क्यों खड़े किये? दूसरा जब इस्लामिक मौलाना इस्लाम की विचारधारा को सबसे श्रेष्ठ बताते है तो फिर वो इस्लाम की आलोचना से तिलमिला क्यों जाते है? क्या उन्हें भय है कि इस मजहब के जन्म से ही केवल हिंसा, धमकी, प्रतिबंध झेल रहे लोग इससे दूर ना हो जाये? तो फिर ऐसी कमजोर विचारधारा में बंधे रहने से क्या लाभ है| इस्लामिक आतंक की वजह से जिन इस्लाम के मानने वालों का घर, बार छिना हो, वो आज दर दर की ठोकर खाने को मजबूर हो तो फिर यह लोग इस विचारधारा में जकड़े क्यों है? या फिर यूरोप में इस्लाम का फैलाव करने की यह सुनयोजित साजिश का हिस्सा है?

इंग्लेंड के समाचार पत्र संडे एक्सप्रेस ने पिछले दिनों इस्लामिक स्टेट का हवाला देकर खबर छापी थी कि इस्लामिक स्टेट ने करीब 4000 हजार आतंकियों को यूरोपीय देशों में भेजने का दावा किया है, खबर के बाद लिखा था “थोडा इंतजार करो|” जिसके बाद जर्मनी में चर्च और स्कूलों में तोड़-फोड़ की घटना, दान-पात्र और लेपटोप लुटने की घटना से लेकर नये साल का आगमन कर रही 100 के करीब स्थानीय युवती रेप का शिकार हुई थी| इन घटनाओं में जो लोग गिरफ्तार हुए थे उनमे से एक ने यू-ट्यूब पर अपना वीडियो जारी कर शरणार्थी शिविर में रह लोगों से इस मुहिम में जुड़ने का आग्रह किया था| हालाँकि किसी घटना को लेकर पसंद या नापसंद करने की किसी भी देश की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है| किसे स्वीकार करे और किसे अस्वीकार इस फैसले पर भी अंतिम अधिकार उनका होता है| लेकिन मानवता के नाते हम लोग अभी भी दुनिया में शांति, प्रेम और भाईचारा कायम रखने की बात करते है| हमारा मकसद किसी मजहब को बदनाम करना नहीं है| किन्तु दुनिया में रहने के नाते कुछ प्रश्न पूछने का अधिकार तो रखते है| क्योकि मुस्लिम मौलाना जब तक आतंक के प्रति अपनी जुबान नहीं खोलेंगे, तब तक आतंक का दानव दुनिया में तबाही जारी रखेगा| आज आतंक की काली छाया धीरे-धीरे यूरोप को निगलने चली है, इसके बाद अमेरिका और अमेरिका के बाद शायद यह छाया दुनिया से मानवता का उजाला हमेशा के लिए नष्ट ना कर दे सोचों जो लोग आज अपनों के सीने में खंजर भोंक रहे है वो कल गैर के लिए कितने खतरनाक होंगे? लेख राजीव चौधरी

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