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आजकल उज्जैन सिंहस्थ कुंभ की गूंज धार्मिक जगत से अधिक राजनैतिक गलियारों में ज्यादा सुनाई दे रही है| मुद्दा है केंद्र में सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह का क्षिप्रा नदी के वाल्मीकि घाट पर दलित साधुओं सहित अन्य साधुओं के साथ स्नान करना और दलित साधुओं साथ समरसता भोज कार्यक्रम के तहत भोजन ग्रहण करना। जहाँ राजनैतिक दल इस स्नान को राजनीति से प्रेरित बता रहे है तो वहीं मीडिया ने संत समाज को भी जातिवाद के खेमे में बाँट दिया| जबकि उज्जैन सिंहस्थ कुंभ के प्रभारी मंत्री भूपेंद्र सिंह ने कहा है कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के स्नान को राजनीति के नजरिए से नहीं देखना चाहिए| उनकी ओर से यह समाज में भेदभाव को खत्म करने का प्रयास मात्र है| परन्तु भारतीय समाज में व्याप्त राजनितिक जातिवाद की आग ने अन्दर साधुओं के तम्बुओं में भी पहुँचने में देर नहीं लगाई और अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी ने अमित शाह द्वारा सामाजिक समरसता के लिए लगाई इस डुबकी पर यह कहते हुए आपत्ति जताई कि संत समाज के अन्दर जातिवाद नहीं है| संत समाज में जहां साधू की कोई जाति नहीं पूछी जाती वहां जाति के नाम पर ही समरसता का ढिंढोरा पीटना अपने-आप में एक राजनैतिक षड्यंत्र के सिवा और कुछ नहीं।
यदि राजनेता वास्तव में बुनियादी तौर पर समाज से जातिगत् भेदभाव समाप्त करना चाहते है तो उन राजनैतिक दलों को जो जातिओं के नाम पर वोट बटोरते है उन क्षेत्रों राज्यों में जाकर समरसता का पाठ पढ़ाना चाहिए जहां दलित दूल्हे को घोड़ी पर सवार नहीं होने दिया जाता, उन राज्यों में जहां स्कूल में बच्चों को दलितों के हाथ का बना खाने से परहेज़ होता है, जिन मंदिरों में दलितों के प्रवेश को स्वयंभू उच्चजाति के लोगों ने वर्जित कर रख है जहां आज भी दलितों को अपने बराबर कुर्सी अथवा चारपाई पर बैठने की इजाज़त नहीं है जहां आज भी स्वयंभू उच्चजाति के लोगों द्वारा दलितों को अलग बर्तनों में खाना व पानी दिया जाता हो| महाराष्ट्र के अन्दर जहाँ दलित जाति की औरतों को अपने कुएँ से पानी नहीं भरने दिया जाता हो| वहां जाकर समरसता की डुगडुगी बजाने की कोशश करनी चाहिए न की ऐसी जगहों पर जहां पहले से ही सामाजिक समरसता का बोलबाला हो।
यदि आज भी जातिवाद को करीब से जाकर देखे तो आधुनिक युग में राष्ट्र फिर वैसी ही समस्या का सामना कर रहा है जैसा पहला कर रहा था| यह मानवता को सुरक्षा और सुख शांति प्रदान न करने में मध्ययुगीन प्रणाली जैसी है दिख रहा है परन्तु आज की नई चुनौतियों में जातिवाद राष्ट्र और समाज के विकास में बाधक बनता दिखाई दे रहा है| यह आवश्यक नहीं है किसी भी राष्ट्र में जनसँख्या एक ही जाति, क्षेत्र या भाषा से जुडी हो परन्तु एक ही राष्ट्र का नागरिक होने के नाते उनकी निष्ठां का केंद्र एक होना आवश्यक है| हाल के वर्षो में देश के अन्दर जातिवाद के बीज रोपने का कार्य का श्रेय यदि सबसे ज्यादा किसी को जाता है तो वो हमारे देश के नागरिकों से ज्यादा राजनैतिक दलों को जाता है| परन्तु उपरोक्त दोष किसी एक दल को नहीं दिया जा सकता इसमें सबकी सहभागिता दिखाई देती है| जिसका उदेश्य सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक लालसा है| अत: निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते है कि राजनितिक दल एक उदार लोकतान्त्रिक राजनितिक व्यवस्था के साथ एक उदार समाज के निर्माण में भी अपनी अहम् भूमिका निभा सकते है किन्तु इन दलों ने अपनी राजनितिक अभिलाषा का पहिया हमेशा जातिवाद की खाइयों से ही होकर निकाला|
आज हमारे राजनेताओं को अपनी दृष्टि व्यापक करनी होगी और यह समझना होगा कि राजनीति राष्ट्रनिर्माण का काम है। हरेक राजनीतिक दल को वोट चाहिए और उसके लिए सही तरीका यह है कि वे अपने दल के लिए वोट जुटाने में विचारधारा और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण यानि विकास की योजना का प्रचार-प्रसार करें। जनमत बनाना प्रत्येक राजनीतिक दल का कर्तव्य है लेकिन जाति आधारित राजनीति समाज के गठन में बाधक है। क्या जातिवादी दल या नेता ही मरणासन्न जाति व्यवस्था को बार-बार पुनर्जीवित नहीं कर रहे हैं? इस पर जनता और तंत्र में बैठे सभी को गहन विचार करने की जरूरत है। अन्यथा जनतंत्र खतरे में पड़ जायेगा। अमित शाह द्वारा लगाई यह डुबकी सामाजिक समरसता के लिए है या राजनैतिक लाभ के लिए यह तो राजनैतिक धड़े जानते होंगे परन्तु आज जिस प्रकार देश के अन्दर जातिवाद सिमटने के बजाय और अधिक पनप रहा है उसे देखते हुए हम अमित शाह के इस कदम की प्रसंशा जरुर कर सकते है| पर मन में एक कसक है कि यदि हमारे राजनेताओं ने यह डुबकी आज से 68 वर्ष पहले लगाई होती तो आज देश के अन्दर जातिवाद का जहर इतना ना फैला होता! lekh by rajeev choudhary
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