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हिंसा के लिए धार्मिक बहाने गलत है?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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पूरा विश्व वैज्ञानिक गति से दौड़ रहा है पर धर्मगुरु हजारों साल पहली बातें लिए बैठे है| कमाल देखिये कुछ धार्मिक ग्रन्थ रटने वालों को लोग धर्मगुरु कहते है खैर आज इस प्रसंग में कई बात कहना चाहूँगा और में हमेशा कहता हूँ कि मौखिक रूप से बयान देने से पहले आप सच का पर्दा हटा कर देख लीजिये कि कहीं आप जाने अनजाने किसी अपराध या अपराधी को धर्म की आड़ में बचा तो नहीं रहे है? मेरे पिछले कुछ साल धर्म और जीवन को समझने में चले गये और जो दोनों का समझा तो पाया शांति से जीने के लिए आपके पास जीवन है, जिसमे प्रेम, दया, मानवता, सहानुभूति, सात्वना सवेदना आदि को प्रथम मान कर जीवन जिया जा सकता है| यदि धर्म में जीना है तो झंडा है, अहंकार है, सत्ता सुख, और व्यभिचार है एक दुसरे को कुचलना, मरना, मारना और स्वर्ग,नरक है| rajeev choudhary

मेरा मानना है मजहब एक संगठन होता है जिसका संगठन जितना बड़ा उसी संगठन की हकुमत होती है और जहाँ सत्ता दरकती दिखाई देती है वहीं आवाज़ आती है कि मजहब खतरे में है| ताकि लोगों को संगठित किया जा सके! यह कोई नहीं कहता कि सत्ता खतरे में है कारण सत्ता के नाम पर लोग नहीं आते पर धर्म के नाम पर एकजुट हो जाते है और जितनी जल्दी एकजुट होते है उनका उतना ही फायदा उठाया जाता है| कई दिन से प्रश्न उठ रहा है कि माल्दा,पूर्णिया में जो हुआ क्या वह मुसलमानों की असहिष्णुता नहीं है? क्या कमलेश तिवारी नाम के किसी एक नेता के बयान पर इतना हंगामा करने का कोई तुक था कि उसके ख़िलाफ़ माल्दा समेत देश के कई हिस्सों में आगबबूला प्रदर्शन किये जायें? थाने फूंके जाये गाड़ियों को आग के हवाले किया जाये जबकि कमलेश तिवारी के ख़िलाफ़ क़ानून तुरन्त अपना काम कर चुका है, ख़ास कर तब जबकि हिन्दू महासभा जैसा संगठन तक भी उसकी निन्दा कर चुका है। इसके बाद और क्या चाहिए था? घटना इतनी पुरानी हो चुकी। अब क्यों प्रदर्शन? अब क्यों ऐसा बेवजह ग़ुस्सा? अब क्यों ऐसी उन्मादी हिंसा? सवाल बिलकुल जायज़ हैं। और चाहे जो कह लीजिए, इन सवालों का कोई जवाब समझ में नहीं आता!

उम्मीद थी कि वक़्त के साथ, पढ़ने-लिखने के साथ और एक उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहने के अनुभवों के साथ मुसलमान कुछ सीखेंगे, कुछ बदलेंगे और कठमुल्लेपन की कुछ ज़ंजीरें तो टूटेंगी ही। हालाँकि ऐसा नहीं है कि बदलाव बिलकुल नहीं आया है। आया है और वह सोशल मीडिया पर दिखता भी है। कुछ पढ़े लिखे समझदार लोग इसकी निंदा भी करते है किन्तु इसी कड़ी में अभी कुछ लोगों के दिमाग 1400 साल के बच्चे की तरह है, वो ही इस्लाम का पहनावा वही खानपान नारी समाज पर वही प्रतिबंध कुछ दिन पहले केरल से ख़बर आयी थी एक मुसलिम वीडियोग्राफ़र का स्टूडियो जला देने की। उसकी ग़लती बस इतनी थी कि उसने व्हाट्सएप पर यह सुझाव दिया था कि मुसलिम औरतों को बुर्क़े या हिजाब का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। उसके पहले केरल में ही एक महिला पत्रकार वीपी रजीना के इस ख़ुलासे पर उन्हें गन्दी-गन्दी गालियाँ दी गयीं कि केरल के एक मदरसे में बच्चों का यौन शोषण होता था। इन दोनों मामलों पर भी जो हंगामा हुआ, वह क्यों होना चाहिए था, यह सवाल आज मुसलमानों को अपने आप से पूछना चाहिए! क्यों मुसलमान यह सुझाव तक भी नहीं बर्दाश्त कर सकते कि बुर्का या हिजाब न पहना जाये? सुझाव देने वाले ने इसलाम की क्या तौहीन कर दी? बस एक सुझाव ही तो दिया था! क्या इसलाम का मतलब इतना असहिष्णु होना है? क़तई नहीं। हालाँकि यदि इस कड़ी में हिन्दू और इसाई समाज की तुलना करूं तो वेटिकन आज 2500 साल पुराने ढांचे को लिए खड़ा है किन्तु उन लोगों ने समय के साथ बदलाव स्वीकार किया| कुछ ऐसा ही हाल हिन्दू धर्म के कुछ ठेकेदारों का भी है जिन्हें संस्कृति और सभ्यता तो 5 हजार साल पुरानी चाहिए पर साधन नये होने चाहिए जबकि साधन के अनुसार ही संस्कृति चलती है| इनका ही क्यों हर एक धर्म के ठेकेदार को साधन और सुविधा तो वर्तमान की चाहिए और जीवन के आनंद अत्याधुनिक कमाल है हिन्दू भी धार्मिक है और मुस्लिम भी, इसाई और यहूदी भी किन्तु एक दुसरे के साथ जंग लड़ रहे है किसलिए?

बस धर्म? जिसका जितना पुराना उतना ही ज्यादा नशा और यह नशा हमेशा मानवता को नुकसानदायक हो जाता है| हालाँकि अन्य पंथो ने समय के साथ सोच बदलकर जीवन को सत्य मान कर आगे बढे किन्तु लेकिन इस हलके से बदलाव के बावजूद भारतीय मुसलिम समाजका बहुत बड़ा हिस्सा अब भी कूढ़मग़ज़ है और सुधारवादी कोशिशों में उसका कोई विश्वास नहीं है। जब तक मुसलमान इस सच्चाई को नहीं समझेंगे और अपनी धार्मिक पहचान से हट कर चीज़ों को देखना और समझना नहीं शुरू करेंगे, तब तक उनकी पुरानी बीमारी का कोई इलाज नहीं है। तब तक उन्हें एहसास भी नहीं होगा कि वह आख़िर अपने पिछड़ेपन और ऐसी जकड़ी सोच से क्यों नहीं उबरते? मुसलमानों को सोचना चाहिए और शिद्दत से सोचना चाहिए कि सुधारवादी और प्रगतिशील क़दमों का हमेशा उनके यहाँ विरोध क्यों होता है? तीन तलाक़ जैसी बुराई को आज तक क्यों ख़त्म नहीं किया जा सका? जनसंख्या वृद्दि सारे समाज की समस्या है? वे शिक्षा में इतने पिछड़े क्यों हैं? धर्म के नाम पर ज़रा-ज़रा सी बातों पर उन्हें क्यों भड़का लिया जाता है? कहीं लड़कियों के फ़ुटबाल खेलने के ख़िलाफ़ फ़तवा क्यों जारी हो जाता है? कोई क्रिसमस पर ईसाइयों को बधाई देने को क्यों ‘इसलाम-विरोधी घोषित कर देता है? मुसलमानों को इन सवालों पर सोचना चाहिए और यह भी सोचना चाहिए कि उनके आसपास उनके बारे में लगातार नकारात्मक छवि क्यों बनती जा रही है? और क्या ऐसा होना ठीक है? मुसलमानों को अपने भीतर सुधारों और बदलावों के बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए|

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