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जमात-ए-इस्लामी प्रतिबंध कितना जरूरी

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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कई रोज पहले जम्मू कश्मीर में जमात-ए-इस्लामी संस्था पर लगे प्रतिबंध के बाद अनेकों सवाल और जवाब के बुलबुले लगातार फूट रहे है। एक तरफ जहाँ जमात-ए-इस्लामी का दावा है कि उनके स्कूल में बच्चों को नैतिक और धार्मिक शिक्षा के अलावा आधुनिक पढ़ाई दी जाती है, वहीं जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल का मानना है कि दुनिया भर में जमात ए इस्लामी जैसी संस्थाएं ही शिक्षा और लोगों की मदद करने जैसे काम की आड़ में आतंक की फंडिंग, उसको बढ़ाने और कट्टरता बढ़ाने का कार्य करती हैं। कश्मीर में भी मदरसों के माध्यम से जमात बड़े पैमाने पर कट्टरता फैला रहा हैं। इस कारण जमात के कई बड़े नेताओं को हिरासत में लिया गया, छापेमारी के दौरान करीब 52 करोड़ जब्त भी किये गये। अकेले श्रीनगर में संगठन के 70 बैंक खातों को सील कर दिया गया है। श्रीनगर के बाद किश्तवाड़ में भी जमात-ए-इस्लामी के बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया गया है।

 

 

 

यह मामला ऐसे समय उभरकर आया है जब देश में चुनाव निकट है इस कारण इस पर राजनीति न हो इसे भी नकारा नहीं किया जा सकता। जमात-ए-इस्लामी संगठन पर प्रतिबंध के बाद जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती विरोध के लिए सड़कों पर उतरी और केंद्र की सरकार को निशाने पर लेते हुए कहा हम ऐसा नहीं होने देंगे और इसके गंभीर परिणाम भुगतने तक की धमकी दे डाली। जबकि जमात-ए-इस्लामी पर यह कोई पहला प्रतिबंध नहीं है इससे पहले इस संगठन पर उसकी गतिविधियों को लेकर अतीत में दो बार प्रतिबंध लग चूका है। पहली बार 1975 में जम्मू-कश्मीर सरकार ने दो साल के लिए और दूसरी बार अप्रैल 1990 में केंद्र सरकार ने तीन साल के लिए प्रतिबंध लगाया था। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि जिस संगठन में पक्ष में आज महबूबा उतरी है उन्हें यह पता होना चाहिए कि दूसरी बार प्रतिबंध लगने के समय उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद देश के गृह मंत्री थे।

इस्लामी धर्मगुरु मौलाना अबुल अला मौदुदी द्वारा स्थापित, इस्लाम की विचारधारा को फैलाने के उद्देश्य से साल 1941 में बनाए गये इस संगठन के पास आज करीब 4,500 करोड़ रुपये की संपत्ति होने की संभावना जताई जा रही है। माना जाता है जमात-ए-इस्लामी काफी लंबे समय से कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की मुहिम भी चला रहा है। उसका मानना है कि कश्मीर का विकास भारत के साथ रहकर नहीं हो सकता है। ये भी सुनने में आता है कि घाटी में कार्यरत कई आतंकी संगठन जमात के इन मदरसों और मस्जिदों में पनाह लेते रहे हैं।

इसमें कोई दोराय नहीं है कि जो घाटी आज सुलग रही है उसमें कहीं न कहीं कश्मीर में कार्य करने वाले मजहबी संगठन शामिल न हो क्या ऐसा माना जा सकता है? आखिर पत्थरबाजों को मिलने वाला पैसा कहाँ से आता है? उसका माध्यम क्या है? यह सवाल इस प्रतिबंध को मजबूत करते है। हालाँकि प्रदर्शन और पत्थरबाजी में आनेवाली भीड़ को छोड़ दें तो घाटी में एक बड़ा तबका है जो ये हिंसा नहीं चाहता किन्तु वह मजबूर है और मजबूरी का कारण यह कि मस्जिदों से आजादी के तराने बजते ही भीड़ घरों से बाहर निकलने लगती है। इस्लाम के नाम पर भड़कानेवाले भाषण होते हैं, लोगों को भय दिखाकर आंदोलन से जुड़ने पर मजबूर किया जाता रहा है। जबकि कश्मीरी जानते हैं कि पाकिस्तान के साथ जाने में उनका कोई हित नहीं है लेकिन पर्दे के पीछे छिपे जमात-ए-इस्लामी और इसने सहायता प्राप्त आतंकी संगठनों के डर वे हर वो काम करते हैं जो देशहित में नहीं होता।

बताया जाता है कि यह आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन का राजनीतिक चेहरा है। जमात-ए-इस्लामी जम्मू कश्मीर ने ही हिजबुल मुजाहिदीन को खड़ा किया है और उसे हर तरह की मदद करता है। जमात-ए-इस्लामी आतंकियों को प्रशिक्षण, वित्तीय मदद, शरण देना और हर संसाधन मुहैया कराता है। इसे कई आतंकी घटनाओं के लिए जिम्मेदार माना जाता है यह एक ऐसा सत्य है जिसे आज आम कश्मीरी को स्वीकार लेना चाहिए उसे मजहब से ऊपर उठकर अपने भविष्य के बारे सोचना चाहिए।

क्योंकि पाकिस्तान की शुरू से ही कोशिश रही है कि वह इस राज्य की मुस्लिम बहुल जनता और मजहब के बूते इस राज्य पर कब्जा करें। पाकिस्तान की इस कश्मीर हड़प नीति को जमात-ए-इस्लामी कश्मीर जैसे संगठन अंदरूनी तौर पर मजबूती प्रदान कर देश में राष्ट्र विरोधी और विध्वंसकारी गतिविधियों में शामिल होने से नहीं चूक रहे है। आतंक को व्यापार बना कर ये ताकतें धरती के इस स्वर्ग को नरक में तब्दील करने पर आमादा हैं।

पाकिस्तान सहित कई देशों से पैसा लेकर जमात जैसे संगठन यही चाहते हैं कि कश्मीरी नागरिकों को अलग-थलग करके उनकी लोकतान्त्रिक प्रणाली को खत्म कर दिया जाये। यह सब बहुत उलझे हुए प्रश्न हैं जिनका उत्तर आनन-फानन कार्रवाईयों से नहीं मिल सकता है बल्कि एक लम्बी नीति बना कर ही मिल सकता है। यह एक कटु सत्य है कि घाटी में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ाने में पड़ोसी पाकिस्तान लगातार लगा हुआ है। मगर किसी भी नजरिये से कश्मीर की समस्या का कोई धार्मिक पक्ष नहीं होना चाहिए यदि हिन्दू-मुसलमान के आधार पर जमात-ए-इस्लामी संस्था पर लगे इस प्रतिबंध को देखा गया तो यह पाकिस्तान के नजरिये का ही समर्थन करना होगा।

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